उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
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अकबर और पण्डित विभूतिचरण में हो रहे वार्तालाप को महारानी जोधाबाई सुन रही थीं। वह समझ रही थीं कि शहंशाह मुहिम से निराश आए हैं और अपनी निराशा का क्रोध पण्डित पर निकाल रहे हैं। जब पण्डित के विरुद्ध किसी प्रकार की आज्ञा होने ही वाली थी तो उसने ठहरने के लिए जाली के पीछे से कह दिया।
जब दरबान दीवानखाने से निकल गया तो अकबर ने पण्डित को सम्बोधित कर कहा, ‘‘देखो पण्डित! आज तुम्हारा इस दुनिया से अन्न-दाना खतम हो चला था। महारानी जी ने कहा है, ठहरिए। हम इसका मतलब यह समझे हैं कि वह चाहती हैं कि हमें अपने हुक्म को अभी मुल्तवी करना चाहिए।’’
विभूतिचरण मुस्कराते हुए सामने खड़ा था। उसने कहा, ‘‘मैं महारानी जी का शुक्रगुज़ार हूँ। उन्होंने मुझे कुछ सेवा करने का और मौका दिलवा दिया है।
‘‘हज़ूर! एक बात तो यकीनी है कि जो कोई भी इस दुनिया में पैदा हुआ है वह एकदिन मरेगा ही। मगर यह जन्म और मरण मनुष्य के प्रारब्ध, जिसे किस्मत कहते हैं, के अधीन है और मैंने अपने विषय में अपने इल्म से यह जाना है कि मैं अभी पचपन साल तक और जीऊँगा।’’
‘‘तो तुम नज़ूम से जानते थे कि ठीक वक्त पर महारानी तुम्हारी जानबख्शी करा देंगी?’’
‘‘जहाँपनाह! उनके मुतअल्लिक मैं जानता नहीं था कि वह हमारी गुफ्तगू सुन रही हैं। हाँ, परमात्मा की बात मैं जानता था कि वह मेरी सब बातों को देखते हैं और आपके कामों को भी जानते हैं। इस कारण यह करिश्मा तो परमात्मा की ही कृपा का फल है।’’
‘‘बहुत ना-शुक्र-गुज़ार हो पण्डित!’’
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