उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘वह तो पहले ही अर्ज़ कर चुका हूँ। महारानी जी इस बात की साक्षी हैं। मगर मैं तो यह कह रहा हूँ कि उनके मन में यह दया-भाव भी तो परमात्मा का पैदा किया हुआ है।’’
‘‘बात करने में बहुत होशियार हो। अब महारनी जी के दिल में परमात्मा का खौफ कर रहे हो। अच्छा, छोड़ो इस बात को। अब बताओ, तुम हमारी मेहर को मानते हो या नहीं?’’
‘‘इससे इन्कार नहीं कर रहा। आपके दिल में किसी का तो मान है। परमात्मा का न सही, महारानी जी का ही सही। मगर वह जानती हैं कि उनके दिल में बैठा वह कह रहा है कि विभूतिचरण बेगुनाह हैं और उसे अभी जीने का अधिकार है।’’
‘‘अकबर ने बात बदल दी। उसने जाली की ओर देखकर पूछा, ‘‘हाँ तो महारानी! फरमाएँ कि इस काफिर की ज़िन्दगी दराज़ करने की क्या वजह है?’’
‘‘जाली के पीछे से आवाज़ आई, ‘‘मैंने तो ठहरिए इसलिए कहा है कि मुझे शहज़ादे की जन्मकुण्डली बनवानी है। इसीलिए मैंने इनको बुलाया है। साथ ही पण्डिताइन हैं। इनके तीन बच्चे हैं। पण्डिताइन बेचारी अपनी लड़की की शादी के लिए परेशान हो रही हैं। इन सब कामों के लिए अभी इनकी इस जहाँ में ज़रूरत है। पण्डिताइन दुर्गा अभी विधवा नहीं हो रही। न ही इनके बच्चे यतीम होने वाले हैं। तो फिर कुछ ऐसा हुक्म ही क्यों दिया जाए जो निरर्थक होनेवाला है।’’
‘‘तो महारानी जी भी अब नज़ूम लगाने लगी हैं?’’
‘‘बात यह है कि पण्डित जी को मैंने बुलाया है। मेरे भेजे रथ में बैठकर आए हैं। इसलिए यह मेरी ज़िम्मेदारी है कि इनको सही-सलामत गाँव में पहुँचा दूँ। मैं समझती हूँ कि मेरे शहंशाह की हुकूमत उस गाँव तक जरूर है और वह जब चाहें अपने मुल्ज़िम को पकड़ मँगवा सकते हैं।’’
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