उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘हाँ, पण्डित जी!’’ महारानी ने बात बदल विभूतिचरण से कहा, ‘‘मैं खादिमा के हाथ शहज़ादे की जन्म-तिथि और समय लिखकर भेज रही हूँ। उसकी जन्मकुण्डली और ज़िन्दगी के हालात आप लिखकर भेज दें। बताइए, यह काम कब तक हो सकेगा?’’
‘‘हुजूर!’’ पण्डित ने जाली की ओर देखकर कहा, ‘‘कम-से-कम दो दिन इसमें लगेंगे।’’
‘‘तो खादिमा से वह पर्चा ले लें और आप जा सकते हैं।’’
इसी समय जाली के पीछे से एक खादिमा एक कागज़ के पुर्ज़े पर शहज़ादे की जन्म-तिथि इत्यादि लिखा ले आई। वह उसने अकबर के हाथ में दे दी।
शहंशाह ने कागज़ पर हिन्दी भाषा में एक पंक्ति में ही जन्मकाल इत्यादि लिखा देखा तो पण्डित के हाथ में देते हुए पूछा, ‘‘पण्डित जी! हमें पता चला है कि आप हमसे दिए धन को मन्दिर बनवाने पर खर्च कर रहे हैं। यह हमारी मर्ज़ी के खिलाफ है।’’
‘‘जहाँपनाह! मैंने आपसे कभी कोई रकम नहीं ली। हाँ, पिछली बार मेरे जाने के रथ पर एक थैली रखी देखी थी। रथवान से पूछने पर पता चला कि महारानी जी ने वह धन ज़रूरतमन्दों में देने के लिए दिया है।’’
‘‘मैंने वह जरूरतमन्दों को ही दे दिया था। मुझे मालूम हुआ है कि उसका सदुपयोग किया जा रहा है। उस धन से सोना खरीदकर एक मन्दिर के कलश पर चढ़ाया जा रहा है। महारानी जी का दिया धन एक निहायत ही मुनासिब काम पर खर्च हो रहा है।’’
‘‘बस यही वजह हो रही है कि हमारी मेवाड़ की मुहिम कामयाब नहीं हो रही।’’
‘‘उसकी कामयाबी तो हो रही है। हाँ, उस रफ्तार से नहीं हो रही जिससे आप और मैं उम्मीद कर रहे थे। इसकी वजह मैंने अर्ज़ कर दी है।’’
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