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उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ

प्रारब्ध और पुरुषार्थ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7611

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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।


‘‘मगर यह बात हमें सालारे-जंग ने ही बताई है कि उस मन्दिर पर हमारे धन से बन रहे कलश की खबर से ही हमारे मुसलमान सिपाही दिल लगाकर नहीं लड़ रहे।’’

‘‘जहाँपनाह! यह बात नहीं है। बात यह है कि इसी सालारे-जंग ने शायद हुज़ूर को यह राय दी थी कि इस मुहिम में राजपूतों को शामिल न किया जाए और अपनी इस गलत राय से हो रही खराबी को छुपाने के लिए बदनामी की यह बात कह दी है।’’

‘‘राजपूताना के रेगिस्तान में आपके मुसलमान सिपाही जंग कर नहीं सके। वह अपनी गलत राय का इलज़ाम किसी दूसरे पर लगा रहा मालूम होता है।’’

अकबर विचार करने लगा कि पण्डित की बात ठीक ही मालूम होती है। नाकामयाब सालारे-जंग अपनी नाकामयाबी की सफाई में इलज़ाम किसी दूसरे पर लगा रहा है।

‘‘देखिए जहाँपनाह!’’ पण्डित ने आगे कहा, ‘‘मन्दिर के खुलने की रस्म और वहाँ देवता की स्थापना अगले महीने की पहली तारीख को होनेवाली है। अगर हुजूर उस मौके पर वहाँ तशरीफ लाने की तकलीफ करें तो हिन्दुस्तान में वसीअ तादाद रियाया के मन में उत्साह की लहर दौड़ जाएगी और फिर उसके हम मज़हबों को चित्तौड़ की मुहिम में शामिल कर लेंते तो फतह यकीनी है। शहंशाह अपने मुनासिब ज़राय को मुनासिब जगह पर इस्तेमाल नहीं कर रहे। यह होने लगेगा तो कामयाबी, जो आपके भाग्य में लिखी है, वह फल देने लगेगी।’’

‘‘हमें तो यह खबर मिली है कि हमारे सिपाही पहले ही हमारे उस मन्दिर की तामीर में मददगार होने पर नाराज हैं।’’

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