उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘यह तो अपनी नाकामयाबी और नालायकी को छुपाने के लिए बहानेबाज़ी ही मालूम होती है। देखिए हुज़ूर! कहावत है ‘नाच न जाने आँगन टेढ़ा।’ मुझे कुछ ऐसी ही बात मालूम होती है।’’
‘‘तो तुम मुझे इस मुहिम में राजपूतों को शामिल करने की राय देते हो?’’
‘‘मैं तो राजा मानसिंह की तजवीज़ की याददिहानी ही कर रहा हूँ।’’
‘‘अच्छी बात है। हम पण्डित की राय पर गौर करेंगे।’’
इसका मतलब था कि मुलाकात समाप्त हुई। विभूतिचरण इस सब समय शहंशाह के सामने खड़ा रहा। इस बार उसे बैठने का भी हुक्म नहीं दिया गया था। पण्डित ने आशीर्वाद दिया और पिछले पाँव दीवानखाने से बाहर निकल गया। यह दस्तूर था कि शहंशाह की मौजूदगी में कोई भी व्यक्ति आते हुए अथवा जाते हुए उनकी ओर पीठ नहीं करता था।
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