उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
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जब विभूतिचरण दीवानखाने से बाहर निकला तो बाहर दो राजपूत सिपाही खड़े थे। इन्होंने पंडित को देख झुककर सलाम किया और पंडित जी को महल के बाहर ले जाकर उनके लिए खड़े रथ पर बिठाते हुए कहा, ‘‘पंडित जी! माहारानी जी ने यह आपको भेंट देने के लिए हुक्म दिया है।’’
यह एक थैली थी। उसमें पहले की भाँति मुहरें ही प्रतीत होती थीं। पंडित जी ने थैली को पकड़ते हुए पूछ लिया, ‘‘इस बोझ को कहाँ पहुँचाने की आज्ञा है?’’
‘‘हुज़ूर! यह आज्ञा है कि आप इसे अपने गाँव ले जाइए। वहाँ पंडिताइन दुर्गा की लड़की के विवाह पर खर्च करने के लिए यह महारानी जी की ओर से भेंट है।’’
विभूतिचरण विस्मय से मुख देखता रह गया। दोनों राजपूत सिपाही गंभीर मुख पंडित जी के मुख पर परेशानी के चिह्न देख रहे थे। पंडित जी ने अपने मनोभावों को प्रकट कर दिया और कहा, ‘‘सरदार! तनिक पता करो कि किस दुर्गा को महारानी जी की यह सौगात पहुँचानी है।’’
‘‘तो आप यह पकड़िए और ठहरिए। हम अभी पता करने की कोशिश करते हैं।’’
मगर इस समय तक शहंशाह महारानी के पास जा चुके थे। इस कारण राजपूत सिपाही पंडित जी से कहने लगे, ‘‘इस समय शहंशाह महारानी जी के पास हैं और वहाँ अब कोई नौकरानी नहीं जा सकती। इस कारण आप अभी तो नगर सराय में ही जा रहे हैं, वहाँ इसके विषय में जो कुछ भी आज्ञा होगी, हम आपकी सेवा में कहलवा भेजेंगे।’’
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