उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
विभूतिचरण रथ पर सवार हो नगर सराय को चल दिया। उसके दीवानखाने से जाते ही अकबर उठा और जाली के पीछे जा पहुँचा, जहाँ महारनी जोधाबाई बैठी थीं। उनके पास दो सेविकाएँ खड़ी थीं और एक ने गोद में शहज़ादे को लिया हुआ था। शहज़ादा उस समय चालीस दिन का हो चुका था।
‘‘तो इसे भी यहाँ लिए बैठी थीं।’’ शहंशाह ने धाय की गोद में बच्चे को देखकर पूछा।
‘‘मैं इसके लिए पंडित जी से आशीर्वाद लेने आई थी।’’
‘‘तो वह कोई औलिया है जिसकी दुआ की ख्वाहिश कर रही थीं?’’
‘‘बिना औलिया के कोई मुस्तकबिल में कैसे देख सकता है? उसमें तो यह ताकत परमात्मा की दी हुई हो सकती है।’’
‘‘तुमने आज एक बहुत बड़े काफिर की जान बचा ली है।’’
‘‘मगर जहाँपनाह! इसका कसूर क्या था?’’
‘‘इसने हमारी सल्तनत में सेंध लगाने की कोशिश की है।’’
‘‘मैंने आप दोनों में हुई सारी बातचीत सुनी है। उसमें तो कोई सेंध लगाने की बात थी नहीं। उसने आपको एक राय दी थी। उस राय का मानना न मानना आपके अख्तियार में था।’’
‘‘मगर मैं उसकी यहाँ दी गई राय की बात नहीं कर रहा। पिछली बार जब यह आया था तो महारानी जी ने इसे पाँच सौ अशरफियाँ किसी खरायत के काम पर खर्च करने के लिए दी थीं। वह इसने एक हिंदू मंदिर पर व्यय करने के लिए दे दी हैं। सिर्फ इतना ही नहीं कि वह रकम इस काम के लिए दे दी है, बल्कि इसकी डुग्गी पीटना शुरू कर दिया है।’’
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