उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘जहाँपनाह! उस धन के खर्च करने में उसे मैंने आजादी दी थी। वह उसे अपने पास भी रख सकता था। मुझे मालूम है कि उसके घर में एक रुपया भी नकद नहीं था, जब वह रथ में अपने घर पहुँचा था। वह खुद भी जरूरतमंद था। इसकी बीवी इसे कह रही थी कि लड़की शादी करने लायक हो रही है और उसके लिए कुछ नदक की जरूरत होगी। मगर इसने अपनी जरूरत से ज्यादा मंदिर की ज़रूरत को समझा है।’’
‘‘भला यह गुनाह की बात थी? और फिर इसने उस धन को देनेवाले का नाम रोशन करने की ही कोशिश की थी।
‘‘यह तो कसूर उनका है जो आपके इस सवाब के काम को बुरा मान रहे हैं। मेरी तो जहाँपनाह से यह अर्ज है कि इस किस्म के खुदा-दोस्त को इनाम देना चाहिए।’’
शहंशाह मुस्करा रहा था। उसने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘तो इस बार ज़रूरतमंदों को देने के लिए महारानी जी ने इस काफिर को कुछ नहीं दिया?’’
‘‘मैंने तो दिया है। मगर कुछ आपके हाथ से भी जाता तो उसको शहंशाह की फराखदिली का कुछ तो अहसास होता।’’
‘‘हमने यह फैसला किया है कि भटियारिन की सराय पर बने मंदिर की इफ्तताही रस्म के वक्त खुद जाकर मंदिर की नजर-न्याज़ करेंगे। इस काफिर के हाथ में देने की बजाय खुद जाकर दें। इससे हमारी शोहरत होगी।’’
महारानी जोधाबाई ने शहंशाह की कदमबोसी की और कहा, ‘‘जैसे हुज़ूर के गोविंदवाल में सिक्ख गुरु की संगत में हाजिर होकर नजर पेश करने से हिंदुस्तान में धूम मच गई थी, वैसे ही इस समय भी होगा और हुज़ूर की हिंदू रियाया आपके गुणानुवाद गाती फूली नहीं समाएगी।’’
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