उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘हाँ। हम पंडित के इस दावतनामे को मंजूर करेंगे।’’
‘‘और एक मेरी इल्तजा है।’’
‘‘क्या?’’
‘‘इस मौके पर इस खादिमा को भी साथ रखें।’’
‘‘यह एक मुश्किल मसला है। यह गोविंदवाल नहीं है। यह आगरा है। फिर तुम जानती हो कि हमारी हरम में एक जबरदस्त इसलामी असर है जो हमारी सल्तनत को नेस्तो-नाबूद कर सकता है। उसके तार हिंदुस्तान के हर बड़े शहर से जुड़े हुए हैं।’’
महारानी जोधाबाई चुप हो रहीं।
जब अकबर ने महारानी को अपने कमरे में भेज दिया तो विचार करने लगा था कि कितनी बड़ी बेवकूफी करने लगा था। पंडित विभूतिचरण से उसे काम लेते हुए चार-पांच साल के लगभग हो चुके थे और उसकी भविष्यवाणी कभी भी निष्फल नहीं हुई थी। वह विचार कर रहा था कि हकीकत में इस बार भी उसका कहा ठीक हो रहा था। यह ठीक था कि वह इस मुहिम का नतीजा बहुत जल्दी चाहता था, मगर दूसरी तरफ भी तो दिलदार लोग थे। वे अपने वतन के लिए लड़ रहे थे। उनका त्याग और तपस्या भी तो उसकी इच्छाओं का विरोध कर रहे थे।
इस पर भी वह विचार करता था कि विजय उसकी ही होगी। यह सोचकर उसकी हँसी निकल गई। वह हँसा इस कारण था कि उसके मस्तिष्क में अपनी कामयाबी की बात के आते ही यह बात भी आई थी कि भला उसकी ही कामयाबी क्यों होगी?
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