उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
उसने यह प्रश्न विभूतिचरण से मालवा पर आक्रमण के विषय में पूछते समय किया था। पंडित ने गणना कर बताया था कि मुहिम मुश्किल है, मगर कामयाबी शहंशाह की ही होगी। उस समय उसने प्रश्न किया था, ‘‘मेरी ही फतह होगी। भला क्यों?’’
‘‘आपने अपने पहले जन्म में कुछ ऐसे पुण्य कार्य किए हैं कि आपके भाग्य में फतह लिखी है। मालवा वालों ने आपका कुछ भी नहीं बिगाड़ा। आपका हमला वाजिब नहीं है मगर फिर भी वह हारेंगे और आप जीतेंगे।’’
इस पर अकबर ने पूछा था, ‘‘तो खुदा बहुत ही बेइंसाफ है?’’
पंडित का सतर्क उत्तर था, ‘‘नहीं हुज़ूर! वह अन्याय नहीं करता। आपके पूर्व जन्म के पुण्यकर्म आपके साथ हैं और मालवा वालों के पूर्व जन्म के कर्म उनके साथ हैं।’’
‘‘यह कैसे पता चले कि यह मेरे इस जन्म की मेहनत-मशक्कत का नतीजा नहीं?’’
‘‘यह मेहनत-मशक्कत करने की अक्ल और कुव्वत भी तो पूर्ण जन्म के कर्मों का फल है। हुज़ूर! याद रखिएगा, जिस दिन आपके मन में किसी काम के लिए स्फूर्ति और साहस नहीं होगा तो समझ लीजिएगा कि परमात्मा नहीं चाहता कि आप उसे करें।’’
अकबर का अगला प्रश्न था, ‘‘और जब भी हमारा मन किसी ऐसी बात के लिए करे जिसका नतीजा पीछे बुरा हुआ हो तो क्या समझा जाए?’’
‘‘यही कि पूर्व जन्म के संस्कार आपसे वह गलती करवा रहे हैं। इसमें आप विवश हो उस नतीजे की तरफ ले जाए जा रहे हैं।’’
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