उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
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अकबर को यह बात पसंद नहीं आई कि हिंदू मंदिर के उत्सव पर राज्य का प्रबंध नहीं चाहते। उसे विदित था कि कुछ वर्ष हुए हरिद्वार में हिंदुओं का एक पर्व था। उस समय वैरागी और नंगे साधु परस्पर लड़ पड़े थे और कई सौ मारे गए थे। लड़ने वालों के अतिरिक्त सैकड़ों तो भागती भीड़ के नीचे दबकर कुचले गए थे।
कुछ ऐसी ही बात की वह इस समय आशा करता था। आगरे के सेठों ने यह घोषणा कर दी थी कि अकबर मंदिर के उद्घाटन के दिन मंदिर देखने आएगा। इससे तो आगरे से बीस-बीस कोस के लोग इस उत्सव पर आने के लिए तैयार हो गए।
यह समाचार राजा मानसिंह के पास भी पहुँचा। उसको भी समझ में आया कि देवता से अधिक शहंशाह के दर्शन के लिए लोग आएँगे। अतः उसने निश्चय किया कि वहाँ शहंशाह की सुरक्षा का प्रबंध होना चाहिए। वह मंदिर की निर्माण-समिति के सदस्यों से मिलकर कहने लगा, ‘‘यदि शहंशाह की रक्षा के लिए सेना के लोग आएँगे तो इससे भीड़ में गड़बड़ भी हो सकती है।’’
‘‘क्या गड़बड़ हो सकती है?’’ एक ने पूछा।
‘‘वे सैनिक स्त्रियों से छेड़छाड़ तथा किसी का अपहरण भी कर सकते हैं।’’
इस पर मानसिंह ने समर पर सैनिकों के व्यवहार का वृत्तांत बताया तो सेठ मुख देखते रह गए।
एक ने कहा, ‘‘विभूतिचरण जी का कहना था कि मंदिर में सरकारी प्रबंध नहीं होना चाहिए।’’
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