उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘तो किसका प्रबंध करेंगे?’’
‘‘हम नगर के एक सौ से ऊपर युवक तैयार कर रहे हैं जो प्रबंध करेंगे।’’
इस पर मानसिंह ने कहा, ‘‘तो ऐसा करें कि उन स्वयंसेवकों को हमारे एक सालार के अधीन कुछ दिन तक प्रबंध करने की शिक्षा दिला दें।’’
इस पर सेठ तैयार हो गए। एक सौ से ऊपर स्वयंसेवक नित्य राजा साहब के सैनिक शिविर में जाकर शिक्षा लेने लगे। उत्सव से तीन-चार दिन पहले एक राजपूत सैनिक ने राजा साहब को बताया, ‘‘हुज़ूर! शहंशाह का खास अर्दली करीमखाँ अपने एक मित्र को कह रहा था कि शहंशाह यह काफिरों का मेला इस कारण देखने जा रहा है कि मुसलमान सैनिक हिंदुओं की मनपसंद औरतों का अगवाह कर सकें। इससे तो कई सैनिकों के जत्थे उस दिन उत्सव में लूट मचाने का इरादा कर रहे हैं।’’
‘‘तो फिर क्या किया जाए?’’
उस सैनिक ने बताया, ‘‘हमें उन सैनिकों को काबू में रखने के लिए कोशिश करनी चाहिए।’’
‘‘सेठ लोग कुछ स्वयंसेवक इस काम के लिए तैयार कर रहे हैं।’’
‘‘महाराज! वे बेचारे क्या कर सकेंगे? मुसलमान सैनिक इस मेले को एक महान लूट का अवसर समझ रहे हैं। महाराज! इसमें हमें कुछ करना चाहिए।’’
‘‘यदि हम कुछ करेंगे तो शहंशाह की दो सेनाएँ आपस में लड़ मरेंगी।’’
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