उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘लेकिन महाराज! अगर मुनासिब इंतजाम न किया गया तो सैकड़ों औरतों का अगवाह हो जाएगा।’’
‘‘मैं समझता हूँ कि शहंशाह को इस संभावना की सूचना दे दें तो प्रबंध सुगमता से हो सकेगा।’’
‘‘क्या प्रबंध हो सकेगा?’’ राजपूत सालार का प्रश्न था।
‘‘शहंशाह से मुसलमान सैनिकों को आज्ञा दिला दें कि वे उत्सव पर जाएँ ही नहीं।’’
‘‘मगर महाराज! हमारे लोग तो यह समझ रहे हैं कि शहंशाह ने स्वयं लूट मचाने की योजना बनाई है।’’
‘‘यह बात सत्य नहीं हो सकती।’’
‘‘महाराज! करीमखाँ शहंशाह का खास आदमी है। वह शहंशाह का इस प्रकार के कामों में सहायक समझा जाता है। इससे सब यह सत्य समझ रहे हैं कि शहंशाह ने ही उसे उत्साहित किया है कि मेले में गड़बड़ मचाई जाए। इस पर सब समझ रहे हैं कि कुछ अधिक चीख-पुकार मची तो शहंशाह की रक्षा के लिए सेना को हुक्म हो जाएगा और फिर वहाँ मंदिर को गिराकर बिसमार भी किया जा सकता है।’’
‘‘तो फिर हम क्या कर सकते हैं?’’
‘‘मेरी एक तजवीज है,’’ सामने खड़े राजपूत सैनिक ने कहा।
‘‘क्या?’’
‘‘हम आपके सैनिक सामान्य हिंदुओं के पहरावे में जाएँ और बिना मंदिरवालों को बताए भीड़ की, विशेष रूप से स्त्रियों की रक्षा करें।’’
‘‘यह देख लो कि हिंदू-मुस्लिम फसाद नहीं होना चाहिए। इससे हमारे शहंशाह से संबंध बिगड़ सकते हैं।’’
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