उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘आप हमें इस उत्सव पर जाने की अनुमति दे दें। शेष हम स्वयं विचार कर लेंगे।’’
इस राजपूत सालार का नाम सुमेरसिंह था। उसको सूचना एक मुसलमान ने ही दी थी कि करीमखाँ सैनिक शिविर में आया था और सैनिकों से फुसफुसाहट में बातें करता रहा था। करीमखाँ के जाने के उपरांत ही सेना में उत्सव पर जाने के लिए तैयारी होने लगी है। वे सैनिक टोलियाँ बना रहे हैं।
राजा मानसिंह ने उस दिन सेना को छुट्टी दे दी और चार-पाँच सौ सैनिक एक निश्चित योजना के अनुसार उत्सव में जाने की तैयारी करने लगे।
वैशाख प्रतिपदा से दो दिन पूर्व गी विभूतिचरण परिवार सहित सराय में जा टिका था। रामकृष्ण बहुत प्रसन्न था। इस उद्घाटन के अवसर पर उसने तीन हलवाई की दुकानें लगवा दी थीं। वह आशा कर रहा था कि सहस्रों रुपए की बिक्री इस अवसर पर होगी। वह इस मंदिर और इसके उद्घाटन के उत्सव को अपने भाग्य का उदय समझ रहा था।
मंदिर समिति का यह आग्रह था कि उद्घाटन के उपरांत पंडित विभूतिचरण मंदिर का स्थायी पुजारी बन मंदिर की ऊपर की मंजिल के कमरों में आकर रहने लगे। पंडित ने अभी इस विषय में निश्चय नहीं किया था। उसका कहना था कि पहले उद्घाटन हो जाए। तदनंतर प्रबंध के लिए समिति बन जाए। उसके उपरांत वह निश्चय करेगा कि वह स्वयं इस प्रबंध में क्या कार्यभार अपने सिर पर ले।
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