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उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ

प्रारब्ध और पुरुषार्थ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7611

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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।


उत्सव के पहले ही सायंकाल से लोग एकत्रित हो मंदिर के चारों ओर डेरे डाल टिकने लगे थे। बहुत-से साधु-संत और महात्मा तो कई दिन पहले से ही वहाँ डेरे डाल धूनियाँ रमा रहे थे। विभूतिचरण और मंदिर के प्रबंध करनेवाले सेठ इस समारोह की सफलता पर बहुत प्रसन्न हो रहे थे। उन्होंने दो लाख दोने प्रसाद के लिए तैयार करवा रखे थे और उनका यह निश्चय था कि मंदिर में दर्शन के लिए सब आनेवालों को प्रसाद मिलना चाहिए। इस काम के लिए आगरा के तीन अन्य सेठ नियुक्त थे।

प्रातः चार बजे ही विभूतिचरण ने स्वयंसेवकों को, मंदिर में दर्शन के लिए आनेवालों को पंक्तियों में कैसे आने दिया जाए और कैसे शीघ्रातिशीघ्र इतनी बड़ी संख्या में दर्शकों को निपटाया जाए, यह सब समझाना आरंभ कर दिया था।

मंदिर के आनेवाले द्वार से दो पृथक्-पृथक् मार्ग भीतर आने और बाहर जाने के लिए बाँस बाँधकर बनाए गए थे। एक पुरुषों के लिए था और दूसरा स्त्रियों के लिए।

पंडित स्वयं सात बजे पूजा के लिए बैठ गया। पहले यज्ञ-हवन किया गया। तदनन्तर वेदमंत्र-गान हुआ और फिर एक सौ एक ब्राह्मण मंदिर की छत पर चढ़कर स्तोत्र पढ़ने लगे।

स्वयंसेवकों ने भीड़ में घूम-घूमकर लोगों को समझा दिया था कि पूजा और स्तोत्र-गान के समय सबको चुपचाप खड़े होकर सुनना है। न तो उन्हें परस्पर बोलना है और न ही शंख इत्यादि बजाने हैं।

लोग अपने घरों में पूजा करने के शंख, घड़ियाल इत्यादि लेकर आए हुए थे। मंदिर की ओर से भी सैकड़ों लोग आरती के उपरांत शंख, घड़ियाल, ढोल नगाड़े इत्यादि बजाने के लिए नियुक्त थे।

कार्यक्रम नियमित रूप से चलता रहा। पूजा समाप्त हुई और ब्राह्मण मंदिर की छत पर चढ़कर स्तोत्र-गान करने लगे। दो लाख की भीड़ चुपचाप खड़ी-खड़ी मंदिराभिमुख हो हाथ जोड़े स्तोत्र-गान सुनती रही। यह दो घड़ी तक चलता रहा। अब मंदिर पर से शंखध्वनि हुई तो सब ओर से शंख, घड़ियाल इत्यादि बजने लगे। घोर तुमुलनाद होने लगा।

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