उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
|
47 पाठक हैं |
प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
इसी समय शहंशाह चालीस घुड़सवारों से घिरा हुआ वहाँ आ पहुँचा। बीस सवार शहंशाह के आगे थे और बीस सवार पीछे। शहंशाह की सवारी के मंदिर तक पहुँचने के लिए मार्ग बनाया हुआ था। शंख, घड़ियाल इत्यादि के तुमुलनाद में शहंशाह की सवारी मंदिर-द्वार पर जा खड़ी हुई।
सब घोड़ों से उत्तर पड़े और द्वार पर निर्माण समिति के प्रधान सेठ भानु मित्र ने शहंशाह का पुष्पमालाओं से स्वागत किया। मंदिर पर से शहंशाह पर पुष्पवर्षा की गई।
पुरुषों के मार्ग से शहंशाह मंदिर में गए। उनके दाहिनी ओर राजा मानसिंह थे और बाईं ओर मिर्ज़ा अबुल फैज़ी। सेठ भानु मित्र शहंशाह को मंदिर में ले गया।
पुरुषों के मार्ग के साथ-साथ स्त्रियों के लिए मार्ग बना था। दोनों मार्गों के बीच बाँसों से रोक लगी थी। ज्यों ही शहंशाह ने मंदिर में प्रवेश किया उसकी दृष्टि स्त्रियों के मार्ग से भीतर जाती हुई एक स्त्री पर पड़ी। उसे वह जानी-पहचानी समझ आई। उसके मुख से एकाएक निकल गया, ‘‘ओह! तुम!’’ परंतु उस समय ढोल, नगाड़ों, शंख और घड़ियालों का इतना शोर था कि अकबर के मुख से निकला वाक्य किसी को सुनाई नहीं दिया।
मंदिर के देवस्थान की प्रदक्षिणा में भी आधा-आधा मार्ग पुरुष-स्त्रियों के लिए बनाया हुआ था। संयोग ऐसा बना कि कुछ स्त्रियाँ और सुंदरी तथा अकबर और मानसिंह सथा-साथ प्रदक्षिणा कर रहे थे। परंतु अभी भी घड़ियाल इत्यादि का इतना तुमुलनाद हो रहा था कि अकबर ने सुंदरी को संबोधन करने का यत्न किया, परंतु सुंदरी ने या तो सुना नहीं अथवा जान-बूझकर अनसुना कर दिया।
|