उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
देवता की प्रदक्षिणा हुई और शहंशाह मूर्ति के सामने आ खड़ा हुआ। जयपुर के एक अति योग्य मूर्तिकार की बनाई लक्ष्मी नारायण की मूर्ति अति सुंदर बनी थी। शहंशाह ने देवता के चरणों में फूल चढ़ाए और अशरफियों की एक छोटी-सी थैली चरणों में रख दी। उस समय सुंदरी ने एक रुपया और कुछ फूल चढ़ाए। विभूतिचरण ने दोनों को प्रसाद दोने में दे दिया। विभूतिचरण इस संयोग को देखकर मुस्करा रहा था।
उसने आशीर्वाद दिया और वे मंदिर से बाहर निकल गए।
करीमखाँ ने भी भटियारिन की लड़की सुंदरी को सबसे पहले मंदिर में जाते देखा था। वह विस्मय कर रहा था कि सुंदरी वहाँ कैसे आ गई? उसे सुंदरी के नगर चैन से भाग जाने के पीछे का इतिहास विदित नहीं था। इस कारण वह मन में यह विचार कर रहा था कि उसे पकड़कर शहंशाह के हवाले कर दे। इससे वह बहुत बड़ा इनाम पाएगा। अतः वह अन्य स्थान पर होनेवाले छुटपुट झगड़ों को छोड़ मंदिर के द्वार पर आ खड़ा हुआ।
सुमेरसिंह विचार कर रहा था कि स्त्रियों के अपहरण करनेवालों के नेता पर देख-रेख रखनी चाहिए। इस कारण वह उसके पीछे लगा हुआ था। वह भी करीमखाँ के पीछे मंदिर के द्वार पर आ खड़ा हुआ। सुंदरी मंदिर से बाहर निकली और अपने पति निरंजन देव की प्रतीक्षा करने लगी। वैसे तो वह भी सुंदरी की भाँति सबसे आगे था, परंतु शहंशाह और उसके साथ मानसिंह इत्यादि को सबसे पहले भीतर जाने का अवसर मिला। इस कारण जब सुंदरी बाहर आई तो निरंजन देव अभी भीतर ही था। सुंदरी एक ओर हटकर खड़ी हो गई। इस समय तक तो स्त्री-पुरुषों की एक-एक मील लंबी पंक्तियाँ लग चुकी थीं।
एकाएक करीमखां ने लपककर सुंदरी की बाँह पकड़कर ऊँची आवाज में कहा, ‘‘तुम शहंशाह की बंदी हो।’’
सुमेरसिंह तैयार खड़ा था। जब सुन्दरी ने शोर मचाया, ‘‘बचाओ! बचाओ!!’’ सुमेरसिंह की तलवार ने करीमखाँ का सिर धड़ से पृथक् कर दिया।
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