लोगों की राय

उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ

प्रारब्ध और पुरुषार्थ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7611

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

47 पाठक हैं

प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।


अकबर अभी समझ ही रहा था कि क्या हो गया है कि मानसिंह ने अपने साथ आए राजपूतों को शहंशाह के चारों ओर घेरा डाल देने के लिए कह दिया। इस घेरे में सुमेरसिंह, निरंजन देव, सुंदरी, राधा और कुछ अन्य दर्शन करनेवाले भी आ गए।

शहंशाह ने करीमखाँ की देह को ऐंठते देखा तो हुक्म दे दिया, ‘‘इनमें से कोई भी भागने न पाए। मुजरिम को हमारे सामने पेश किया जाए।’’

‘‘मानसिंह ने अपने राजपूतों को आज्ञा दे दी, ‘‘इन सबको मेले से बाहर ले चलो।’’

इस समय अन्य कई स्थानों पर भी मुसलमानों सैनिकों और राजपूतों में जमकर लड़ाई होने लगी थी। मुसलमानों को पता चल गया था कि करीमखाँ मारा गया है और राजपूतों को पता लगा था कि सुमेरसिंह पकड़ा गया है।

मानसिंह ने देखा कि सैनिकों की लड़ाई के कारण मेले में भगदड़ मच रही है। अतः उसने शहंशाह को कहा, ‘‘जहाँपनाह! चलना चाहिए।’’

‘‘मगर हमारा खास अर्दली मारा गया है।’’

‘‘उसका मुकद्दमा मीरे-अदल के पास जाएगा।’’

‘‘नहीं। यह मुकद्दमा हम खुद देखेंगे।’’

शहंशाह ने करीमखाँ को सुन्दरी की बाँह पकड़े हुए देखा था और वह मीरेअदल के सामने सुन्दरी के बयान नहीं होने देना चाहता था।

शहंशाह का हुक्म सुन मानसिंह ने अपने पीछे खड़े एक सिपाही को कह दिया, ‘‘इन बंदियों को सीधे शाही महल में ले चलो। मीरे-अदल के पास ले जाने की जरूरत नहीं।’’

इस आज्ञा के उपरांत शहंशाह की सवारी आगरा को चल दी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book