उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
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करीमखाँ के मारे जाने पर और अन्य कई स्थान पर स्त्रियों को हाथ लगाते ही राजपूतों को तलवार निकालते देख शीघ्र ही शांति स्थापित हो गई। इस पर भी कई लोग भगदड़ में घायल हो गए। घायल होनेवालों में स्त्रियाँ और बच्चे अधिक थे।
दोपहर होते-होते मेले में शांति हो गई। कई सहस्र तो बिना दर्शन किए ही अपने-अपने घरों को चल दिए थे। कई सौ घायल हुए तो उनकी मरहम-पट्टी की जाने लगी। हलचल के उपरांत पुनः दर्शकों की पंक्तियाँ लग गई थीं और सायंकाल तक दर्शक मंदिर में जाते रहे। फूलों, रुपयों, रेज़गारी और मुहरों का ढेर मूर्ति के चारों ओर लग गया था। विभूतिचरण भी फूलों के भीतर से देख रहा था। सबसे अंत में रामकृष्ण और उसका लड़का मोहन आए और पंडित जी के चरण स्पर्श कर बोले, ‘‘भगवान का धन्यवाद है कि मंदिर और सराय लुटने और तोड़-फोड़ से बच गई है।’’
‘‘क्या हुआ है?’’
सेठ भानु मित्र ने एक स्त्री पर झगड़े की बात बता दी। इस पर रामकृष्ण ने बताया, ‘‘पंडित जी! शहंशाह का वही अर्दली था जो हमारी पहली सराय को गिरा गया था। उसने सुंदरी को बाँह से पकड़ घसीटना चाहा तो एक समीप खड़े राजपूत ने उस अर्दली का सिर काट धड़ से पृथक् कर दिया।
‘‘इस पर सुंदरी, वह राजपूत और कुछ अन्य लोग पकड़े गए हैं। निरंजन देव भी पकड़ा गया है। राजा मानसिंह ने तो कहा था कि सबको मीरे-अदल के सामने ले जाया जाए। परंतु शहंशाह ने आज्ञा दे दी कि इनका मुकदमा वह स्वयं करेंगे।’’
विभूतिचरण ने भी सुंदरी को माँग में सिंदूर लगाए हुए देखा था। इस कारण वह समझ रहा था कि बहुत झगड़ा होगा।
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