उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
परंतु अपने स्वभाववश वह बिन बुलाए कभी भी शहंशाह से किसी प्रकार की याचिका करने नहीं जाना चाहता था।
वह समझ रहा था कि अब तक कुछ-न-कुछ निर्णय हो चुका होगा। इस कारण उसने रामकृष्ण को कहा, ‘‘मोहन को भेज निरंजन देव का पता करो।’’
इतना कह वह देवता को नमस्कार कर उसकी प्रदक्षिणा ले और अपने लिए रखा प्रसाद को दोना उठा मंदिर की छत पर अपने परिवार में चला गया।
दुर्गा ने पूर्ण झगड़ा देखा था। वह उस समय छत पर खड़ी पंक्ति में आ रहे तथा जा रहे लोगों को देख रही थी।
उसने अपने पति को बताया, ‘‘एक सुंदरी हिंदू स्त्री मंदिर के बाहर निकल चारों ओर किसी को देख रही थी। संभवतः वह अपने घर के किसी व्यक्ति को ढूँढ़ रही थी कि इस समय पठानों के पहरावे में एक व्यक्ति आया और उस स्त्री को बाँह से पकड़कर शहंशाह की ओर ले जाने लगा तो उस स्त्री ने शोर मचा दिया, ‘बचाओ! बचाओ!!’’
‘‘यह शोर सुनकर एक पीली पगड़ी बाँधे राजपूत ने तलवार निकाली और उस पठान का सिर काट दिया। सिर भूमि पर उछलने लगा तो शहंशाह के समीप खड़े एक हिंदू सरदार ने आज्ञा दे वहाँ खड़े सबको घेर लेने को कह दिया। तुरंत दस-बारह व्यक्ति घेरे में आ गए। तलवार चलानेवाला राजपूत भी पकड़ लिया गया। पीछे सब लोग उत्सव के बाहर चले गए।’’
विभूतिचरण प्रातःकाल का निराहार बैठा था। उसने हाथ धो कुल्ला किया और दोने में से प्रसाद के मोदक खाने लगा।
इस समय सेठ भानु मित्र एक पत्र ले मंदिर पर चला आया। वहाँ आकर उसने विभूतिचरण को वह पत्र दे दिया।
‘‘सेठ जी, क्या लाए हैं?’’ विभूतिचरण ने पूछ लिया।
‘‘शहंशाह का पत्र आपके नाम है।’’
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