उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
पंडित ने लड्डू समाप्त किए। तब हाथ धो पत्र ले पढ़ा। उसमें लिखा था, ‘‘पंडित विभूतिचरण जी! फौरन चले आइए। आपकी एक मुकद्दमें में गवाही चाहिए।’’
पंडित ने सेठ जी से पूछा, ‘‘कोई सवारी भी आई है?’’
‘‘हाँ! एक रथ है।’’
‘‘मैं जाने को तैयार हूँ।’’
सेठ जी ने धीरे से कहा, ‘‘पत्र लानेवाला एक राजपूत है। वह कहता है कि यदि आप लापता होना चाहते हैं तो हो सकते हैं। वह वहाँ कह देगा कि आप नहीं मिले।’’
‘‘वह ऐसा क्यों कहता है?’’
‘‘मरनेवाले अर्दली करीमखाँ के सब संबंधी रोते-धोते हुए शहंशाह के द्वार पर इकट्ठे हो रहे हैं और उस स्त्री को मुसलमानों के हवाले करने के लिए कह रहे हैं जिसके कारण झगड़ा हुआ है।’’
विभूतिचरण ने कहा, ‘‘सेठ जी, आप चिंता न करें। मैं अभी मारा नहीं जा सकता। मेरी मृत्यु अभी नहीं लिखी।’’
विभूतिचरण ने अपने पूजा के वस्त्र उतारे और सामान्य कपड़े पहने और मंदिर से नीचे उतर आया। ज्यों ही वह नीचे उतरा मोहन निरंजन देव के साथ आता दिखाई दिया। वह भी पकड़ा गया था। निरंजन देव ने पंडित जी के पूछने पर बताया, ‘‘हमें आगरा में ले जाकर शहंशाह के सामने उपस्थित किया गया। सुंदरी को हमसे पृथक् कर दिया गया था। मैंने तो यह बताया कि जब मैं मंदिर से बाहर आया तो झगड़ा हो चुका था। इसलिए मैं कुछ नहीं जानता कि क्या हुआ है।
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