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उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ

प्रारब्ध और पुरुषार्थ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7611

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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।


सुमेरसिंह जिसने करीमखाँ का कत्ल किया था, उसने कहा कि करीमखाँ इस औरत को बाँह से पकड़कर घसीटने लगा तो यह ‘बचाओ-बचाओ’ का शोर मचाने लगी। मैंने उस आततायी को ललकारा। मगर वह इस औरत को घसीटता ही गया तो मैंने उसको उसकी गुस्ताखी का दंड देना उचित समझा।

‘‘ ‘तुम वहाँ क्या कर रहे थे?’ शहंशाह ने सुमेरसिंह से पूछा।

‘‘ ‘मैं राजा साहब के अंगरक्षकों में से एक हूँ और खूफिया तौर पर उनकी रक्षा किया करता हूँ।’

‘‘ ‘क्यों राजा साहब?’ शहंशाह ने मानसिंह से पूछा।

‘‘ ‘हाँ, हुज़ूर। अपने शहंशाह की रक्षा के लिए मैंने प्रत्यक्ष रक्षकों के अतिरिक्त कुछ खुफिया लोग भी तैनात किए हुए थे।’

‘‘ ‘आप इस औरत को जानते हैं?’

‘‘ ‘नहीं, जहाँपनाह।’

‘‘ ‘आप सुमेरसिंह को कसूरवार समझते हैं या नहीं?’

‘‘ ‘मैं समझता हूँ कि इनसे इनाम के लायक काम किया है।’

‘‘ ‘मगर जानते हैं कि करीमखाँ क्यों इस औरत को पकड़ रहा था?’

‘‘ ‘जहाँपनाह! मैं कैसे किसी के मन की बात जान सकता हूँ। मैं तो यह समझता हूँ कि यह पठान सब पठानों की तरह एक हिंदू औरत का अगवाह कर रहा था।’

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