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उपन्यास >> धरती और धन

धरती और धन

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7640

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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती।  इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।


फकीरचन्द ने घर जाकर राजमाता का सन्देश और स्नेह-सूचक भेंट की बात बताई तो रामरखी चकित रह गई। उसने समझ लिया कि ऐसे भूमिपति से सम्बन्ध तो परमात्मा की महान् अनुकम्पा के कारण ही हो सकता है। इसके अतिरिक्त जब फकीरचन्द ने राजमाता की अन्य बातें बताईं, तो अपने सौभाग्य पर उसके आँसू निकल आये।

परन्तु रामचन्द्र को तो यह बात सुनकर और भी अविश्वास होने लगा। उसने अभी तक काम आरम्भ नहीं किया था। उसने सेठजी को बम्बई में एक पत्र लिखकर अपने विचार व्यक्त कर दिये थे। वह और उसकी माता पन्नादेवी, दोनो अब सेठजी के उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे थे।

रामचन्द्र प्रातः नौ बजे सोकर उठता था। स्नानादि से छुट्टी पाने तक ग्यारह बज जाते थे। भोजन तो वह फकीरचन्द के काम से लौटने के पहले ही कर लेता था। तदुपरान्त वह गाँव में नदी के किनारे पर शिवालय में शतरंज खेलने चला जाता। सायंकाल चार बजे तक शतरंज चलती, तदनन्तर वह शौचादि के लिए जंगल में चला जाता। वहाँ से लौटकर वह हलवाई की दुकान से कभी मलाई और कभी रबड़ी लेकर खाता। इसके बाद वह नदी के किनारे चला जाता। जहाँ नदी गाँव के समीप से बहती हुई निकल जाती थी, वहाँ एक पक्का घाट बना हुआ था। उस स्थान पर गाँव के लोग स्नानादि करते थे और सायंकाल गाँव के बेकार आदमी बैठ भंग छानते थे। रामचन्द्र उनमें जा पहुँचता। परिणाम यह होने लगा था कि उसकी मित्रता गाँव के बेकारों से हो रही थी।

जिस समय फकीरचन्द झाँसी से लौटा, रामचन्द घर पर था और स्नान कर भोजन करने को तैयार बैठा था। फकीरचन्द आया तो रामचन्द्र ने पूछ लिया, ‘‘किधर से आ रहे हो भैया?’’

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