उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
‘‘झाँसी से। सुनाओ क्या निश्चय किया है तुमने काम का?’’
रामचन्द्र ने अपनी बात को टालते हुए पूछ लिया, ‘‘झाँसी किस काम से गये थे।’’
‘‘जमींदार से कुछ काम था।’’
‘‘क्या काम था?’’
इस समय रामचन्द्र की माँ और फकीरचन्द की माँ, दोनों आ खड़ी हुईं। फकीरचन्द मकान के बड़े कमरे में बैठ जूता उतारने लगा। जूता उतारते हुए उसने माँ को राजमाता का सन्देश दे दिया। माँ अभी परमात्मा का धन्यवाद ही कर रही थी कि फकीरचन्द जूता उतार अपना सूटकेस ले बिछी दरी पर बैठ गया तथा उसको खोल, उसमें से कण्ठी और साड़ी निकालकर माँ को दिखाने लगा। माँ ने दोनों वस्तुएँ देखीं और विस्मय करते हुए कहा, ‘‘ये तो काफी मूल्य की मालूम होती है?’’
रामचन्द्र की माँ ने साड़ी और कण्ठी हाथ में पकड़कर देखीं और कहाँ, ‘‘साड़ी तो तीस-चालीस रुपये की मालूम होती है और कण्ठी यदि असली सोने की हुई तो चालीस की यह भी होगी।’’
कुछ भी हो। मैं राजमाता की आभारी हूँ। मैंने तो उनके दर्शन भी नहीं, किये, फिर भी उन्होंने अपना स्नेह मुझपर प्रकट किया है।’’
इसपर रामचन्द्र फकीरचन्द के समीप आ बैठा था, कहने लगा, ‘‘और माताजी ! आपने क्या नजराना भेजा था?’’
‘‘हमने पचास बीघा भूमि का, जो इस वर्ष जोती है, लगान ढाई सौ रुपया भेजा था।’’
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