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उपन्यास >> धरती और धन

धरती और धन

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7640

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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती।  इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।


‘वह तो पट्टे के अनुसार अभी आपको आठ वर्ष बाद देना चाहिए था। आपने ढाई सौ रुपया आठ वर्ष पहले ही दे दिया और अब प्रतिवर्ष देते रहेंगे। उसके मुकाबले में यह सत्तर-अस्सी रुपये की भेंट कुछ अर्थ नहीं रखती।’’

‘‘तुम ठीक कहते हो राम !’’ रामरखी ने कहा, ‘‘यह अपना-अपना दृष्टिकोण है। मैंने जब लगान की रकम भेजी थी, तो इस विचार से नहीं कि मुझको राजमाता कुछ भेंट में भेजेगी। मैंने तो वह अपना कर्त्तव्य समझा था।’’

‘‘कर्त्तव्य कैसे? कर्त्तव्य होता तो पट्टे में न लिख दिया जाता?’’

‘‘तुम क्या समझते हो कि बात लिखी जाय, वही करने योग्य होती है? क्या यह सच नहीं कि पट्टा मनुष्य का लिखा हुआ है और मनुष्य भूल कर सकता है? मेरी समझ में आया कि पट्टे में कुछ छूट गया है, इस कारण मैंने उसकी पूर्ति कर दी है।’’

‘‘माताजी ! अपनी बुद्धि तो प्रायः भूल करती है। इसी कारण लिखत-पढ़त कर ली जाती है और सरकार विधान बनाती है। देखिये, हमारे पिताजी ने करोड़ों रुपये कमाये हैं औरवे अपकी भाँति बुद्धिका प्रयोग नहीं करते। यदि वे भी अपनी आय में दूसरों के भाग का विचार करने लगते, तो आज तक कंगाल के कंगाल बने रहते।’’

‘‘राम ! तुम्हारे पिता और हमारे में भारी अन्तर है। हम मजदूर हैं और तुम सेठ-साहूकार। तुम रुपये को धो-धोकर प्रयोग में लाते हो और धोवन ही पीते हो। हम तो परिश्रम के फल को बढ़ाने का यत्न करते रहते हैं। इस कारण हमको अपने परिश्रम और दूसरे के परिश्रम में तुलना करनी ही पड़ती है।’’

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