उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
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इस वर्ष भी मजदूरों और कर्मचारियों को भोज दिया गया, पुरस्कार बाँटे गये और कपड़े दिये गये। सब कर्मचारियों के परिवार के वे लोग भी इस बाँट में पत्तीदार हो गये थे, जो कर्मचारियों के आश्रम पलते थे। इस बार कर्मचारियों के वृद्ध माता-पिता भी अपना भाग पा गये थे।
यह संयोग की बात थी कि जब भोज हो रहा था, करोड़ीमल वहाँ आ पहुँचा। उसको रामचन्द्र की चिट्ठी मिली थी और चिट्ठी का उत्तर भेजने की अपेक्षा उसने स्वयं ही वहाँ आना उचित समझा। अब तो फकीरचन्द के पास काम करने वालों की संख्या तीस से ऊपर हो चुकी थी और आयोजन से लाभ उठाने वाले लोग डेढ़ सौ से अधिक हो गये थे। भोज में सबको खीर, पूरी, शाक-भाजी और आम दिये गये थे।
करोड़ीमल आया तो कोठी के बाहर वाले मैदान में खाने वालों को पंक्तियों में बैठे देख चकित रह गया। उसे आया देख फकीरचन्द आगे आ, उसका स्वागत करने लगा। सेठ ने उससे पूछा, ‘‘फकीरचन्द ! यह भोज कैसा हो रहा है?’’
‘‘जी, यह अपने खेतों पर काम करने की दूसरी वर्षगाँठ है। मालिक-नौकर मिलकर आने वाले वर्ष में ऋषि-सिद्धि की प्रार्थना कर रहे हैं।’’
करोड़ीमल हँस पड़ा और बिना कुछ कहे, पूछने लगा, ‘‘हमारे सुपुत्र क्या कर रहे हैं?’’
‘‘भोजन कर मन्दिर में गया है।’’
‘‘मन्दिर में क्या है?’’
‘‘यह पास ही तो है। जाकर पता कर लीजिये न ! चलिये भीतर। माँजी खाने की देखभाल कर रही हैं।’’
‘‘माँजी कौन? राम की माँ कहाँ हैं?’’
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