उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
‘‘उनके विषय में ही मैं कह रहा हूँ।’’
‘‘तो वह यहाँ आकर काम करने लगी है? घर पर तो तिनका भी नहीं तोड़ती थी।’’
‘‘यह काम भी तो एक छूत की बीमारी है।’’ फकीरचन्द मुस्कराया और फिर अपने काम में लग गया। नौकर सेठजी को भीतर ले गया। भीतर सेहन में हलवाई पूरी-कचौड़ी तल रहे थे। बड़े-बड़े कहाड़ों में खीर, भाजी बनी तैयार रखी थी। खिलाने वाले रामचन्द्र की माँ के पास आते तो वह उनको परातों में डाल-डालकर देती जाती थी।
सेठजी को आया देख उसने मुस्कराकर उनकी ओर देखा और कहा, ‘‘बस आधे घण्टे का काम और है। आप भीतर चलिये और कपड़े बदल स्नानादि कर लीजिये।’’
‘‘ओ संतू !’’ उसने नौकर को आवाज दी। संतू आया तो वह कहने लगी, ‘‘सेठजी के स्नान इत्यादि का प्रबन्ध कर दो।’’
सेठ करोड़ीमल स्नान कर आया तो उसने देखा कि मकान के बड़े कमरे में रामरखी बैठी कपड़े बाँट रही है। बण्डल बँधे रखे थे। उसके पास कर्मचारी आते थे, उनको अथवा उनके परिवार वालों को रामरखी उनके योग्य उचित कपडों का बंडल देती जाती थी।
करोड़ीमल विस्मय में देखता रह गया। इस समय पन्नादेवी आई और बोली, ‘‘चलिये, आपके लिए भोजन लग गया है।’’
सेठ भोजन करने लगा और पन्नादेवी उसके सामने भूमि पर ही बैठ गई। सेठ ने पूछ लिया, ‘‘राम कहाँ हैं?’’
‘‘भोजन कर वह मन्दिर में दिल बहलाने के लिए चला जाया करता है। मैंने संतू को भेज दिया है कि उसको बुला लाये।’’
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