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उपन्यास >> धरती और धन

धरती और धन

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7640

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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती।  इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।


‘‘जिस काम के लिए उसको भेजा था, उसका क्या हुआ है?’’

‘‘उसका विचार है कि इस काम में घाटा ही रहेगा। इस विषय में एक पत्र उसने आपको लिख दिया था। आपके उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा था। वह आपने भेजा नहीं।’’

‘‘मैं उत्तर देने स्वयं आ गया हूँ। राम ने लिखा है कि फकीरचन्द ने उसको धोखा दिया है। उसने मुझको भी धोखा दिया है। यही कारण है मेरे आने का। मैं स्वयं जाँच करना चाहता हूँ। परन्तु वह आया नहीं। कितनी दूर है मन्दिर यहाँ से?’’

‘‘है तो समीप ही। उसको अब तक आ जाना चाहिए था।’’

सेठ ने भोजन समाप्त किया। तब भी उसका लड़का नहीं आया था। इस कारण सेठ स्वयं ही देखने के लिए चल पड़ा। उसने मकान से बहार निकल एक आदमी से पूछा, ‘‘चौधरी ! मन्दिर किधर है?’’

‘‘वह है। वह पीपल के पेड़ के पीछे कलश दिखाई दे रहा है।’’

करोड़ीमल उस ओर ही चल पड़ा। यह शिवालय था। बाहर पत्थर का नन्दी बैठा था और मन्दिर में शिवलिंग के ऊपर एक साँकल के आश्रम कलश लटक रहा था। सेठ ने देखा कि वहाँ कोई नहीं। इस समय मन्दिर के पिछवाड़े से कई लोगों के हँसने का शब्द सुनाई दिया। सेठ उधर ही चल पड़ा। फकीरचन्द के घर का नौकर संतू एक कोठरी के बाहर खड़ा था और चार-पाँच आदमी भीतर बैठे शतरंज का खेल देख रहे थे। एक ओर रामचन्द्र और दूसरी ओर गले में रुद्राक्ष की माला पहने, माथे पर त्रिपुंड चित्रित किये पुजारी खेलनेवाले थे।

सेठ राम को वहाँ बैठा देख कोध से भर गया। इसपर संतू ने कह दिया, ‘‘बाबू कहते थे कि खेल खतम कर चलते हैं।’’

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