उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
‘‘राम ! उठो। यह बेकारों के खेल खेलने में लज्जा नहीं लगती?’’
‘‘ओह ! पिताजी ! आप यहीं आ गये हैं !’’ रामचन्द्र ने खेल छोड़ते हुए कहा, ‘‘मैं तो आने ही वाला था।’’
‘‘अरे मूर्ख ! तुमको यहाँ जंगल काटने भेजा था या शतरंज खेलने?’’
दोनों घर ओर चल पड़े। चलते हुए रामचन्द्र ने कहा, ‘‘उस विषय में तो मैंने अपने विचार आपको लिख दिये थे। आपके उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा था।’’
‘‘पर मैंने तुमको काम पर टीका-टिप्पणी करने नहीं भेजा था। तुमको तो जंगल कटवाना था। लाभ अथवा हानि होती, तो मेरी थी। तुम कामचोर हो। चलो बम्बई, तुम यहाँ काम नहीं कर सकते।’’
‘‘पिताजी ! एक नौकर और मालिक के लड़के में यही तो अन्तर है। नौकर मशीन की भाँति काम करता है, परन्तु मालिक मशीन की भाँति काम नहीं कर सकता। वह तो इन्सान की भाँति काम करना चाहता है। लाभ-हानि देखना उसका काम होता है। वही मैंने किया है।’’
‘‘ओह ! तुम मालिक कबसे बने हो?’’
‘‘जबसे आपने मुझे स्वतन्त्र रूप से काम करने के लिए भेजा है। अब आप आ गये हैं। आप ही देख लीजिये कि मैं ठीक कहता हूँ अथवा नहीं।’’
‘‘अच्छी बात है। अब आज तो बहुत देर हो गई है। कल सवेरे चलकर अपनी भूमि देखेंगे। मैं यह जानना चाहता हूँ कि वहाँ क्या बाधा है, जिसको तुम पार नहीं कर सके।’’
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