उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
‘‘तो अपना काम छोड़ दूँ क्या?’’
‘‘दोनों काम एक साथ नहीं हो सकते क्या?’’
‘‘बहुत कठिन है।’’
‘‘मैं तुमको पाँच सौ रुपया महीना वेतन दूँगा।’’
‘‘मैं समझता हूँ कि यह हो नहीं सकेगा।’’
‘‘मेरे विचार में तुम कर लोगे। एक-दो दिन में विचारकर बताना।’’
‘‘अच्छी बात है, विचार करूँगा। इसपर भी इतना तो कह ही सकता हूँ कि अभी तक मुझको यह बात उचित प्रतीत नहीं होती।’’
उस दिन तो बात इतनी ही हुई। अगले दिन सेठ किसी ऐसे आदमी की खोज करता रहा जिसको वह इन खेतों का काम सौंप सके और जो ईमानदारी से काम कर सके। यह खोज कई दिन तक जारी रही। एक दिन सेठ ने फकीरचन्द के सामने प्रश्न उपस्थित कर दिया। सेठजी ने पूछा, ‘‘फकीरचन्द ! मेरे उस दिन के प्रश्न का क्या उत्तर देते हो?’’
‘‘आपके खेतों के प्रबन्ध का काम?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘मैंने तो समझा था कि आप कोई अन्य व्यक्ति ढूँढ़ रहे हैं।’’
‘‘ढूँढ़ रहा था परन्तु तुम्हारा स्थानापन्न तो नहीं मिला। हाँ, एक आदमी मिला है, जो सब काम करेगा–एक हाथ की भाँति और उस हाथ का मस्तिष्क तुमको बनना पड़ेगा।’’
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