उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
इस समय सूसन साड़ी पहिने हुए थी। रामरखी चर्खा कात रही थी। सूसन उसके पास चटाई पर जा बैठी और उसको कातते देखने लगी। रामरखी सूत को बहुत ही बारीक कातती थी, परन्तु यह कातना बहुत ही धीमी गति से चल रहा था। कुछ देर तक उसको कातते देख, सूसन ने पूछ ही लिया, ‘‘एक घण्टे में कितना कात लेती है?’’
‘‘कुछ अधिक नहीं। एक-पौना तोला सूत एक घण्टे में काता जा सकता है। मैं दो से तीन घण्टे नित्य कातती हूँ। इस प्रकार महीने में पौन सेर सूत कात लेती हूँ। वर्ष में आठ-नौ सेर हो जाता है। इससे मेरे तीन कुरते, तीन सलवारें और दो दुपट्टे तो बन ही जाते हैं।’’
‘‘पर आप इससे कोई तेज़ चलाने वाला चर्खा नहीं बना सकतीं?’’
‘‘अभी तक तो मुझको मिला नहीं। जब मिल जायेगा, तो उस पर काम कर लिया करूँगी?’’
‘‘आप कोई अन्य काम क्यों नहीं कर लेतीं, जो इससे अधिक मूल्यवान हो?’’
‘जी तो करता है, परन्तु मुझको इसके तथा रोटी बनाने के अतिरिक्त कुछ आता भी तो नहीं। हाँ, कपड़ा सीने की मशीन चला लेती हूँ परन्तु घर-भर के कपडे तो सप्ताह में एक-आध दिन काम करने से ही बन जाते हैं।’’
‘‘यहाँ शहतूत के पेड़ होते हैं क्या?’’
‘‘खूब होते हैं।’’
‘‘तब तो रेशम कातने का काम बहुत ही अच्छी तरह से हो सकता है।’’
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