उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
‘‘यहाँ की जलवायु कदाचित् उसके अनुकूल नहीं।’’
‘‘उसका प्रबन्ध तो किया जा सकता है।’’
‘‘देखो बेटी ! तुम हाथ से काम करने को ठीक नहीं समझतीं क्या?’’
‘‘माँजी ! मैं एक किसान की बेटी हूँ और किसान के घर में पली और बड़ी हुई हूँ। हमारे पिता रेशम के कीड़े पालते हैं और रेशम कातकर कपड़ा बुनने वालों के पास बेच देते हैं।’’
‘‘तो कपड़ा घरपर नहीं बुनते !’’
‘‘नहीं, यहाँ आकर मैंने गांधीजी का खद्दर के विषय में व्याख्यान सुना है। मैं उनसे सहमत नहीं हूँ। वे चाहते हैं कि प्रत्येक परिवार कपड़े के विषय में स्वावलम्बी हो। मैं इस बात को गलत समझती हूँ।
‘‘कपड़ा बुनने में कई प्रकार के कार्य हैं। अच्छी बात तो यह है कि एक परिवार एक कार्य को सीख ले और वह केवल उसी कार्य को करे। कपड़े तैयार करने की अन्य प्रक्रियाओं को दूसरे परिवार करें। इस प्रकार पूर्ण कार्य के एक-एक अँग में, एक-एक परिवार निपुणता प्राप्त कर लेगा। इससे ही काम में वृद्धि और आर्थिक स्थिति में उन्नति हो सकेगी।
‘‘पिताजी अपने घर मे रेशम के कीड़े पालते हैं और जब कीड़े रेशम तैयार कर लेते हैं, तो रेशम चर्खी पर बट देते हैं। इस काम के लिए उन्होंने हथ-चर्खियाँ बनवाई थीं। इस प्रकार हमारे परिवार की आय लगभग चार-पाँच सौ रुपये मासिक की हो जाती है।’’
रामरखी को सूसन की बातों से कुछ ऐसा प्रतीत हुआ कि वह उसी ढँग से विचार करती है, जिस ढँग से फकीरचन्द विचार करता है। फकीरचन्द के मस्तिष्क में रेशम के काम का विचार नहीं आया था।
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