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उपन्यास >> धरती और धन

धरती और धन

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7640

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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती।  इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।


वहाँ काम नहीं हो रहा था।

मध्याह्न के समय दोनों वापस लौट आये। इस समय तक, सुन्दरलाल का विचार था कि उन्होंने सबकुछ देख लिया है। अतः मध्याह्नोत्तर वे आराम करते रहे। सूसन फकीरचन्द की माता के पास बैठ बम्बई, ललिता, शकुन्तला और बिहारीलाल के विषय में बातें करती रही। रामरखी उसकी बातें सुनते हुए अपना चर्खा भी कात रही थी। उसी सायंकाल सुन्दरलाल ने फकीरचन्द से, उसके काम की आय के विषय में कई प्रश्न किये और फकीरचन्द ने बताया, ‘‘मैं देहात के विचार से वेतन अधिक देता हूँ परन्तु काम डटकर लेता हूँ। जो व्यक्ति काम नहीं करता, उसको नौकर नहीं रखता। नौ घण्टे नित्य काम लेता हूँ। और प्रत्येक काम करने वाले से कोई-न-कोई काम लेता रहता हूँ। उसको खाली नहीं बैठने देता।

‘‘मेरे पूर्ण व्यवसाय की आय चालीस हजार तक होने लगी है। इससे में दस हजार पिछले कामों में उन्नति करने और नये-नये कामों को प्रारम्भ करने में व्यय करता हूँ। पन्द्रह हजार के लगभग मैं कल्याणकारी कामों में व्यय करता हूँ। इनमें कर्मचारियों के बच्चों की शिक्षा का प्रबन्ध, उनके लिए दूध, पुस्तक, कपड़े इत्यादि का प्रबन्ध करता हूँ। कर्मचारियों के अधीन स्त्रियों और बच्चों को दस्तकारी और अन्य आय-वृद्धि के कामों को सिखाने का प्रबन्ध करता हूँ। पाँच हजार के लगभग दान-दक्षिणा में व्यय हो जाता है। शेष अपने खाने-पीने और किसी आपत्तिकाल में आवश्यकता के लिए सुरक्षित रखता हूँ।’’

इन आँकड़ों को सुनकर सुन्दरलाल का मुख उतर गया। इसके विपरीत सूसन बहुत प्रसन्न थी। वह दिनभर न केवल फकीरचन्द के काम को देखती रही थी, प्रत्युत उसमें और उन्नति के लिए स्थान पर विचार भी करती रही थी।

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