उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
रात के भोजनोपरान्त सुन्दरलाल और सूसन परस्पर विचार करने लगे, तो एक लम्बे वाद-विवाद में पड़ गये। सूसन का कहना था, ‘‘यह स्थान बहुत सुन्दर है। आप करोड़ीमल की भूमि ले लीजिये। मैं समझती हूँ कि हम फकीरचन्द से अधिक आय कर सकेंगे।’’
सुन्दरलाल अपनी चारपाई पर लेटा हुआ था। लेटे-लेटे ही उसने कह दिया, ‘‘मैं तो आज इतना थक गया हूँ कि मेरा मस्तिष्क काम नहीं करता। चार घण्टे लगातार पैदल चलना पड़ा है। यह मैंने अपने जीवन-भर में कभी नहीं किया। यदि ऐसा मुझको नित्य करना पड़ा, तो एक मास में ही ‘बोलो राम’ हो जायेगा।’’
सूसन हँस पड़ी। उसने कहा, ‘‘नित्य करने से अभ्यास हो जायेगा। आपको बचपन से ही मोटर में आने-जाने का अभ्यास है और इतनी थोड़ी-सी मेहनत करने से ही आप व्याकुलता अनुभव करने लगे हैं।’’
‘‘पर मैं पूछता हूँ कि इतना कुछ करने पर भी वर्ष में दस-बारह हजार बचा लेना, कुछ भारी प्रलोभन नहीं है। मैं इतने में सन्तुष्ट नहीं हो सकता।’’
‘‘इस कार्य में एक बढ़िया बात यह है कि जहाँ हमको लाभ होगा वहाँ देश और समाज के लिए भी तो यह हितकर होगा।’’
‘‘होगा। हमको इससे क्या? देश के हित के लिए हमने सरकार को नियत कर रखा है। उसको मैं टैक्स देता हूँ और धर्म के लिए मैं दान-दक्षिण भी देता हूँ।’’
सूसन ने लाख यत्न किया कि वह सुन्दरलाल को कृषि के व्यवसाय के गुण समझाये, परन्तु सुन्दरलाल ने तो देखा था कि घर बैठे-बैठे, टेलीफोन पर बात करने मात्र से हजारों इधर के उधर हो जाते हैं। यदि वर्ष में एक-दो-दिन भी अनुकूल बैठ गये, तो जो कुछ यहाँ पर तीन सौ पैंसठ दिन में पैदा किया जा सकता है, वह भी उसकी तुलना में तुच्छ ही रहेगा।
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