उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
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सूसन और सुन्दरलाल एक मत नहीं हो सके। तीन दिन तक विचार होता रहा। अनेकों योजनाएँ बनाई जाती रहीं और आस-पास के जंगल और खेतों का मानचित्र देखकर अध्ययन होता रहा, परन्तु दोनों में मतभेद बना रहा। सूसन ने एक रात फकीरचन्द को बीच में डाल दिया। भोजन के समय बात आरम्भ हो गई। सूसन ने पूछा, ‘‘भैया ! यहाँ का जलवायु कैसा है?’’
‘‘बहुत अच्छा।’’
‘‘और यहाँ के व्यवसाय से आप सन्तुष्ट हैं?’’
सुन्दरलाल ने बात बीच में ही काटकर कहा, ‘‘मैं समझता हूँ कि इस गाँव में एक हजार एकड़ भूमि में से, अधिक-से-अधिक बीस हजार वार्षिक पैदा कर सकेंगे। यह भी उस अवस्था में ही हो सकता है, जब मजदूर अनुकूल रहें। देखो भैया ! एक नया मत अब पैदा हो गया है। यह है कम्यूनिज्म। इसका जन्म हुआ है इंग्लैण्ड में, परन्तु यह पनपा है रूस में। इसकी तरंगें अब भारतवर्ष में भी आने लगी हैं। मजदूर संगठित हो रहे हैं और उनके संगठन का प्रभाव देहातों में भी आयेगा। तब तुम कितना भी वेतन मजदूरों को दो, वे तुमसे सन्तुष्ट नहीं रहेंगे और तुम्हारा काम पूरा नहीं करेंगे। साथ ही निरन्तर अधिक वेतन के लिए माँग करते रहेंगे। यह तब तक जारी रहेगा, जबतक तुम दिवाला निकालकर यहाँ से भाग नहीं जाते। इस कारण मैं तो कोई ऐसा काम करना चाहता हूँ, जिसमें एक-दो वर्ष के भीतर ही मेरे पास जीवन-भर के लिए धन एकत्रित हो जाये।’’
फकीरचन्द ने कहा, ‘‘सुन्दर भैया ! मैं अभी इस व्यवसाय में, वर्तमान साधनों और पूँजी से अधिक आय की आशा नहीं रखता।
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