उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
‘‘कोई भी उद्योग अथवा धंधा, जिसमें कई लोग मिलकर काम करते हों, एक संयुक्त परिवार का रूप धारण कर लेता है। उसमें वेतन का निश्चय तो सर्वथा अनुमानिक ही होता है। अतएव इसमें संलग्न व्यक्तियों के वेतन का अनुपात समय और अवस्था के साथ परिवर्तित होना चाहिए। यदि मालिक स्वेच्छा से ऐसा कोई प्रबन्ध कर सकें, तो आधे से अधिक संघर्ष तो यहीं समाप्त हो जायेगा।
‘‘मैं यह मानता हूँ कि एक उद्योग में काम करने वाले सब कर्मचारी एक समान भाग के भागी नहीं हो सकते; परन्तु कौन कितना भागीदार है, यह निर्णय सर्वथा काल्पनिक है। अतएव मालिक और नौकर को अपने-अपने भाग की तुलना समय और परिस्थिति के अनुसार निश्चित करनी चाहिए।
‘‘मजदूर यह समझते हैं कि मालिक और मजदूर के वेतन में तुलना का निश्चय करने के लिए सरकार ही मालिक बन जाये। इसका अभिप्राय यह होगा कि मालिक केवल प्रबन्धक मात्र ही रह जायेगा। मालिक होगी सरकार अर्थात् राज्याधिकारी। अव्यवस्था होने पर घाटे का उत्तरदायित्त्व किसी पर भी नहीं होगा। अतः काम में व्यवस्था रहनी कठिन हो जायेगी।
‘‘जब मालिक सरकार हो और सरकार के साथ प्रतिस्पर्द्धा करने वाली कोई अन्य संस्था न हो, तो निस्सन्देह उत्पादन-मूल्य बढ़ जायेगा और पूर्ण जाति हानि उठायेगी। साथ ही, जो भी वेतन राज्याधिकारी निश्चय कर देगा, वह वेद प्रमाण हो जायेगा और उसके विरुद्ध न तो कोई कुछ कह सकेगा, न ही उसे अस्वीकार कर सकेगा।
‘‘जब सरकार से इतर कोई मालिक हो, तो नौकर, कम वेतन होने पर, मालिक से झगड़ा कर सकता है। उसको डरा-धमका सकता है और काम छोड़कर अन्यत्र जा सकता है। ऐसी अवस्था में सरकार एक तीसरी पार्टी होने से न्याय के लिए हस्तक्षेप कर सकती है। सरकार के ही मालिक होने पर, ऐसा कुछ नहीं हो सकता।’’
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