उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
‘‘और मैं यहाँ कलियों का काम नहीं कर सकता।’’
‘‘क्या मैं एक कुली की लड़की हूँ।’’
‘‘और क्या?’’
यह सुन सूसन का मुख क्रोध से तमतमा उठा। वह भी क्रोध में कुछ कहने ही वाली थी कि रामरखी, जो अभी तक उनकी बातें ही सुन रही थी, बोल उठी, ‘‘सूसन बेटी ! इसमें क्रोध की क्या बात है? कुली का काम कोई घृणा की बात नहीं होती।
‘‘देखो, मैं तुम दोनों को एक सुझाव देती हूँ। दोनों विचार कर लेना। सेठ करोड़ीमल का फार्म अब खाली पड़ा है। उसका पट्टा ले लो। एक मकान यहाँ बना लो। इस फार्म का काम करो और बम्बई में सट्टे का काम भी। मुख्य रूप से सूसन यहाँ रहे और सुन्दरलाल बम्बई में और फिर दोनों, दोनों स्थानों पर आते-जाते रहा करो, जिससे परस्पर प्रेम भी बना रहे और एक-दूसरे के साथी भी बने रहो।’’
‘‘पर माँजी !’’ सुन्दरलाल ने कहा, ‘‘मैंने इससे विवाह किया है इसको अपने पास रखने के लिए। इससे यहाँ पर व्यवसाय कराने के लिए नहीं।’’
‘‘ठीक है बेटा ! परन्तु मैंने कब कहा है कि यह तुमको छोड़ दे। न ही तुम दोनों कोई पृथक् व्यवसाय कर रहे हो। व्यवसाय तो दोनों का ही होगा। जितना सुख तुमको यहाँ इससे मिलेगा, उतना ही तुम इसके पास आओगे। अथवा जितना सुख तुम इसको बम्बई में दोगे, उतना ही अधिक यह तुम्हारे पास रहेगी। समझे?
‘‘अब तुम जाओ और सो रहो। वाद-विवाद छोड़ मेरी योजना पर विचार करो। भगवान् तुम दोनों को सुमति दे और तुम एकमत होकर इस भवसागर में यात्रा कर सको।’’
इतना कह रामरखी उठ पड़ी। फकीरचन्द ने भी कहा, ‘‘विवाद में तो कभी कोई नहीं हारता। संसार में सफल वे होते हैं, जो अपने में संसार के अनुकूल शक्ति रखते हैं। संसार में झगड़ा करने वाले सदा मुँह की खाते हैं।’’
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