उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
षष्ठ परिच्छेद
1
अगले दिन प्रातः का अल्पाहार करते समय सुन्दरलाल फकीरचन्द की माँ से कहने लगा, ‘‘माँजी ! हमने आपकी राय मानने का निर्णय कर लिया है।’’
‘‘ओह ! तब तो मुझे अपनी सफलता पर स्वयं बधाई देनी चाहिए।’’
‘‘पर माँजी !’’ सूसन ने हँसते हुए कहा, ‘‘आप तो पहले ही सफलता की मूर्ति हैं। आपके आशीर्वाद से मैं सफल हुई हूँ। मैं इनको विश्वास दिला सकी हूँ। कि मैं जीवन-भर इनकी निष्ठावान पत्नी बनी रहूँगी और उनसे यहाँ के कार्य के लिए कुछ नहीं लूँगी।’’
‘‘तब तो तुम वास्तव में बधाई की पात्र हो। अच्छा बेटी सूसन ! अब क्या योजना है तुम्हारी?’’
‘‘ये आज ही झाँसी जाएँगे और राजा साहब से करोड़ीमल की भूमि का पट्टा बदलवाने की अनुमति ले लेंगे। मैं बम्बई जा रही हूँ और सेठ करोड़ीमल से पट्टा अपने नाम कराने का यत्न करूँगी। मैं आशा करती हूँ कि इसमें सफल हो जाऊँगी। कदाचित् वे कुछ माँगेंगे।
‘‘तदनन्तर मैं यहाँ आ जाऊँगी आते ही अपने रहने के लिए एक लकड़ी की कुटिया बना लूँगी और काम आरम्भ कर दूँगी। जबतक कुटिया नहीं बनेगी, आपके पास रहूँगी। आशा करती हूँ कि आप अस्वीकार नहीं करेंगी और भैया फकीरचन्द से भी यथासम्भव सहायता की आशा करती हूँ।’’
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