उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
|
270 पाठक हैं |
बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
प्रारम्भिक कामों में तीन मास लग गये। सेठ करोड़ीमल को मनाना अति कठिन काम सिद्ध हुआ। उसको मनाने में शकुन्तला और पन्नादेवी की सहायता लेनी पड़ी। उसने बम्बई में पट्टा बदलने की रजिस्ट्री कर दी। बदले हुए पट्टे पर राजा साहब की स्वीकृति ले ली गई। इसके पश्चात् एक दिन सूसन, इस बार अकेली, फकीरचन्द के मकान के बाहर अपना सामान लिए हुए आ पहुँची।
उसी दिन से सूसन ने काम आरम्भ कर दिया। सूसन ने फकीरचन्द के काम की पुनरावृत्ति की। परिस्थितियाँ और प्रारम्भिक पूँजी के कारण अन्तर तो था, परन्तु सिद्धान्त में कहानी वही थी, जो फकीरचन्द की थी।
पूरे वेतन पर आदमी रखकर, उनसे पूरा काम लेना; बचत से व्यय कम करना और बचे हुए रुपयों को पूँजी के रूप में प्रयोग करना। अवकाश के समय अपने को और अपने कर्मचारियों को उपजाऊ कामों में लगाये रखना; ये थे सिद्धान्त, जिनपर फकीरचन्द ने काम किया था और जिनका सूसन ने भी पालन किया।
जब मकान बन गया और उसमें रहने के लिए सब प्रकार की सुविधाओं और सुख का प्रबन्ध हो गया, तो सूसन ने सुन्दरलाल को अपने कार्य का विवरण लिखकर कहा कि वे अब आकर कुछ दिन तक काम का अध्ययन करें।
सुन्दरलाल आया और तीन दिन रहकर वापस बम्बई चला गया। वह सूसन के प्रबन्ध की आलोचना तो नहीं कर सका, परन्तु उसको यह कुटिया बम्बई जैसी सुखप्रद और रसमयी प्रतीत नहीं हुई। सूसन का विचार था कि यह दो कमरों वाली कुटिया अति सुखप्रद प्रतीत होगी, परन्तु वह एक बात भूल रही थी कि बम्बई में सुन्दरलाल अकेला तथा बेकार रहने के कारण, नियंत्रण के अभाव में बहुत सीमा तक उच्छृंखल हो चुका था। क्लब, स्विमिंग पूल, सिनेमा-थियेटर आदि देवगढ़ में नहीं थे।
|