उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
सूसन को सुन्दरलाल के शीघ्र ही बम्बई भाग जाने पर निराशा हुई, परन्तु उसने अपने जीवन का एक लक्ष्य बना लिया था। वह अपने लड़के को एक सफल जमींदार बनाने का निश्चय कर चुकी थी। इस लक्ष्य-प्राप्ति में, सफलता प्राप्त करने के लिए वह इतनी लीन हो गई कि सुन्दरलाल के भाग जाने को भूल गई और काम में लगी रही।
समय व्यतीत हो गया। भूमि समतल हो गई। फलों की पेड़ियाँ लगा दी गईं और लकड़ी उपयोगी रूप में परिवर्तित होकर, अच्छे मूल्य पर बेची जाने लगी। इसके साथ-साथ उसने अपनी कुटिया के चारों ओर एक सुन्दर पुष्प-वाटिका बनवानी आरम्भ कर दी।
इन सब कामों में व्यस्त रहने पर भी वह सुन्दरलाल और बिहारीलाल को पत्र लिखती रहती थी। देवगढ़ में आने में शकुन्तला से विशेष सहायता मिली थी, इस कारण वह उसको वहाँ की प्रगति विशेष रूप में लिखती रहती थी।
सुन्दरलाल तो कभी मास में एक-आध बार उसके सब पत्रों का इकट्ठा ही उत्तर दे देता था। शकुन्तला, ललिता और बिहारीलाल नियम से उसके पत्रों का उत्तर दिया करते थे।
सुन्दरलाल को देवगढ़ से लौटे छः मास से ऊपर हो चुके थे। इसपर भी उसने इधर आने की इच्छा प्रकट नहीं की थी। सूसन इससे किसी अनिच्छित व्यवहार की आशंका करने लगी थी। उसको विस्मय तो इस बात का था। कि सुन्दरलाल ने उसको बम्बई आने के लिए कभी नहीं लिखा था। एक दिन सूसन ने बिहारीलाल को लिखा, ‘‘भैया ! तुम्हारे जीजाजी आजकल पत्रों का ठीक उत्तर नहीं देते। किसी दिन उनसे मिलकर, बिना पूछे, इसका कारण जानने का यत्न करो। मुझको कुछ सन्देह होने लगा है। यह केवल मात्र नारी मे विद्यमान ईर्ष्या के कारण भी हो सकता है। इसपर भी जबतक तुम इस विषय पर लिखोगे नहीं, मेरे मन में शान्ति नहीं होगी।’’
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