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उपन्यास >> धरती और धन

धरती और धन

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7640

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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती।  इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।


इतना कह वह बैठक में सोफा पर जा बैठी और रामू से बोली, ‘‘मेरा सामान नीचे टैक्सी में है। उसको ऊपर ले आओ।’’

उसके अपने कमरे का दरवाजा बन्द था और भीतर कोई था। वह बाहर बैठक में बैठी कमरे का दरवाजा खुलने की प्रतीक्षा करने लगी।

लगभग आठ बजे दरवाजा खुला और एक औरत नाईट-गाउन पहने कमरे में से निकली। यह औरत श्याम वर्ण की, सुगठित शरीर और मोटे नख-शिख की थी। वह ड्राइंग-रूम में एक गोरी औरत को निश्चिन्त बैठे देख विस्मय कर रही थी कि सूसन ने पूछ लिया, ‘‘ओह ! तो यह तुम हो? आओ, इधर आ जाओ। तुमसे ही मिलने आई हूँ।’’

वह झिझकती हुई उसके सामने आकर खड़ी हो गई। सूसन ने सोफा पर अपने सामने बैठने का निमंत्रण दे दिया। वह बैठी तो सूसन ने पूछा, ‘‘तुम कौन हो?’’

‘‘चेतन।’’

‘‘क्या हो? कहाँ रहती हो और कब से यहाँ आई हो?’’

‘‘पर बहन जी ! पहले आप ही बताइये न कि आप कौन हैं? कहाँ से आई हैं और किस मतलब के लिए यहाँ बैठी हैं?’’

‘‘यह तो तुम्हारे मित्र बता देंगे। हाँ, तुम्हारे विषय में उनको बताते हुए लज्जा लगेगी। इसलिए तुमसे ही पूछ रही हूँ।’’

‘‘लज्जा की कोई बात नहीं। अच्छा, उनको आ जाने दो। वे ही हमारा परिचय करा देंगे।’’

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