उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
‘‘अच्छी बात है, रामू !’’ सूसन ने नौकर को आवाज दी। जब वह आया तो उसने कहा, ‘‘स्नानादि से निवृत्त हो चुकी हूँ। ‘ब्रेक-फास्ट’ लगा दो। इन बहन जी के लिए भी एक प्याला चाय ला दो जिससे इनकी नींद खुल जाए।’’
रामू मुस्कराया और रसोईघर की ओर चला गया। सूसन उठी और अपने कमरे में चली गई। सुन्दरलाल रात मद्यपान करता रहा था, इस कारण अभी तक सो रहा था। सूसन ने उसको उठाने का यत्न किया, परन्तु वह जागा नहीं। केवल करवट बदलकर फिर खुर्राटे भरने लगा।
सूसन पलंग के पास एक कुर्सी लेकर बैठ गई। दूसरी औरत अपने हाथ में चाय का प्याला लिए हुए कमरे में आ गई और मुस्कराते हुए सूसन और सुन्दरलाल की ओर देखने लगी।
रामू कहने आया कि ‘ब्रेक-फास्ट’ तैयार है, तो सूसन ने कह दिया, ‘‘लगाकर यहीं ले आओ।’’
इसपर दूसरी औरत, जो चाय पी चुकी थी, खाली प्याला रामू को वापस कर हँसने लगी। जब सूसन ने प्रश्न-भरी दृष्टि से उसकी ओर देखा तो वह खड़ी-खड़ी ही कहने लगी, ‘‘मालूम होता है कि तुम इस पशु की पत्नी हो।’’
‘‘पशु की? तुम इस पशु के पास क्या लेने आई हो?’’
इसपर उस औरत ने अपने कपड़े, जो एक ओर हैंगर पर टँगे थे, पहनने आरम्भ कर दिये। कपड़े पहनते हुए वह कहने लगी, ‘‘पति-पत्नी में जो मधुर वार्तालाप होने वाला है, मैं उसमें विघ्न नहीं बनना चाहती। इस कारण मैं समझती हूँ कि अब चले ही जाना चाहिए।’’
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