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उपन्यास >> धरती और धन

धरती और धन

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7640

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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती।  इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।


‘‘कहाँ जा रही हो?’’

‘‘अपने घर।’’

‘‘कहाँ है वह?’’

‘‘जहाँ मैं रहती हूँ। देखो बहिन ! तुमको वहाँ आने की आवश्यकता नहीं होगी। यदि इस पशु को आवश्यकता होगी, तो यह मेरा पता जानता है।’’

यह कहते हुए वह कपड़े पहनती गई। सूसन ने सुन्दरलाल को फिर उठाने का यत्न किया। इसपर आँख मूँदें हुए ही सुन्दरलाल ने नींद में कह दिया, ‘‘चेतन डियर ! अभी थकावट दूर नहीं हुई। तुम चाय पी लो। मैं अभी आधे घंटे में उठूँगा।’’

इसपर वह औरत खिल-खिलाकर हँस पड़ी और संकेत से सूसन को सलाम कर कमरे से बाहर निकल गई।

एकाएक वह पुनः लौट आई और सुन्दरलाल के तकिये के नीचे से सौ-सो रुपये के कुछ नोट, जो वहाँ रखे थे, उठा जेब में डाल बोली, ‘‘यह तो भूल ही चली थी।’’ पश्चात् वह पुनः सलाम कर चली गई।

जब सुन्दरलाल आँखें मलता हुआ जागा और पलंग पर उठ कर बैठा तो सूसन को सामने बैठा देख आश्चर्य करने लगा।

इसपर सूसन ने पूछा, ‘‘क्या देख रहे हो?’’

‘‘यहाँ तो कोई और थी। वह कहाँ चली गई है?’’

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