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उपन्यास >> धरती और धन

धरती और धन

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7640

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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती।  इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।


‘‘जहाँ से आई थी।’’

‘‘और तुम कब आई हो?’’

सूसन के माथे पर त्योरी चढ़ गई। उसके मन में सुन्दरलाल के प्रति ग्लानि भर गई थी। वह उसको दो-चार जली-कटी सुनाने वाली थी कि उसको शकुन्तला की बात स्मरण हो आई। शकुन्तला ने एक बार कहा था कि पति तो पति ही है। वह अच्छा अथवा बूरा, त्याज्य नहीं हो सकता। सूसन के यह पूछने पर कि पति के ऐसा होने पर भी क्या उससे यौन-सम्बन्ध रहना चाहिए, तो उसने कहा था कि यौन-सम्बन्ध के न होने पर भी, बच्चों का पिता होने के कारण, पति तो पति ही रहेगा।

यद्यपि वह शकुन्तला की इस जीवन-मीमांसा को स्वीकार नहीं करती थी, तो भी वह अपने बच्चे का ध्यान कर सुन्दरलाल से पृथक् होने में अपार कठिनाई अनुभव करती थी।

इस विचार के आते ही उसके माथे से त्योरी उतर गई। इतने काल में सुन्दरलाल परिस्थिति को समझ गया। अब वह खिल-खिलाकर हँस पड़ा और बोला, ‘‘मैं यहाँ बहुत उदास रहता था। मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे पास यहाँ रहा करो।’’

‘‘यहाँ रहने से क्या होगा, जो आपके देवगढ़ रहने से नहीं हो सकता?’’

‘‘वहाँ न बिजली है न पानी। कैरोसीन तेल के लैम्प की रोशनी और कुएँ का पानी, कच्ची सड़क और बैलगाड़ी की सवारी; साथ ही गँवार आदमियों की तरह मुझको यह संगत, जंगलीपन प्रतीत होता है और मैं तो सभ्य समाज का एक अँग हूँ।’’

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