उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
‘‘और जो कुछ आप यहाँ कर रहे हैं, वह सभ्य समाज की बातें ही है क्या?’’
सुन्दरलाल हँस पड़ा। उसने सूसन का हाथ पकड़कर पलँग पर घसीटने का यत्न किया, परन्तु सूसन ने झटका देकर अपने को छुड़ा लिया और कहा, ‘‘आप स्नानादि से निवृत्त हो जाइये। मैं ब्रेंक-फास्ट ले चुकी हूँ। आज ही सायंकाल यहाँ से लौट जाना चाहती हूँ।’’
‘‘बस? तो आई किसलिए थीं?’’
‘‘आपके दर्शन करने। कर लिए हैं और मन तृप्त हो गया है।’’
‘‘एक-दो दिन तो ठहर जाओ। चार सौ मील की यात्रा कर आई हो और बिना विश्राम किये यहाँ से भाग रही हो?’’
‘‘मैं थकी हुई नहीं। मेरा काम वहाँ मेरी प्रतीक्षा कर रहा है।’’
‘‘तो काम मुझसे भी प्यारा है?’’
‘‘हाँ, वह काम आत्मा के बन्धनों से सम्बन्ध रखता है। आपका प्यार शरीर का बन्धन मात्र है।’’
‘‘क्या मतलब?’’
‘‘मतलब समझाने से कौन समझता है? समय, परिस्थिति सबकुछ समझा देती है। अतः आपको समझाने के लिए उचित समय और परिस्थिति की प्रतीक्षा करनी पडे़गी। अब उठिये, आपके साथ तनिक बाजार जाना है।’’
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