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उपन्यास >> धरती और धन

धरती और धन

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7640

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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती।  इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।

2

सूसन उसी दिन लौट गई। सुन्दरलाल ने जब बहुत आग्रह किया तो उसने कह दिया, ‘‘वहाँ चले आइये।’’

देवगढ़ पहुँचकर उसने शकुन्तला को लिखा, ‘‘मैं बम्बई गई थी, परन्तु वहाँ की अवस्था देख, मन में इतनी ग्लानि भर गई कि एक रात भी वहाँ रहने को चित्त नहीं किया। दिन-भर अनिश्चित, अनायोजित और निरुद्देश्य घूमती रही। न किसी से मिलने को चित्त किया और न ही अधिक ठहरने को।

‘‘शकुन्तला बहन ! तुमको तथा ललिता को मुख दिखाने को भी चित्त नहीं किया। मैं तुमको अपने घर की बात बताती हूँ। जरा मैं अभी उनकी पत्नी नहीं बनी थी और तुमसे मिली थी, तो यह विचार कर कि वे तुमको छो़ड़कर मुझसे विवाह कर रहे हैं, मन में गर्व अनुभव करती थी। मैं अपने में कुछ बात तुमसे श्रेष्ठ मानती थी। यह एक कारण था कि बिना विवाह के उनकी पत्नी बन गई। मैं समझती थी कि रुपया मेरे पास होने से मुझको किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं रह जायेगी। वे मुझको छोड़कर नहीं जायेंगे, क्योंकि मैं अपने को तुमसे सुन्दर मानती थी। परन्तु उस दिन यह देख कि वे मुझसे और तुमसे भी अधिक असुन्दर औरत से, जो असभ्य, निर्लज्ज तथा अशिक्षित है, सम्बन्ध बनाये हुए हैं, गर्व-हीन हो, अपने को अति तुच्छ मानने लगी हूँ।

‘‘मुझको अपनी धारणा कि मिस्टर भगेरिया ने मुझको तुम पर उपमा, सुन्दर मानकर दी है, असत्य प्रतीत होती है। जब यह पता चला कि उसने मुझ और तुम दोनों पर एक वेश्या की उपमा दी है, तो मैं अपने मन में बहुत ही हीनता अनुभव करने लगी हूँ। मुझको तुम्हारा यह कहना कि रुपये की गारण्टी पर किसी की पत्नी बनना तो वेश्यापन है, ठीक ही प्रतीत होने लगा है।

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