उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
‘‘आज जब मैं अपने बच्चे के भविष्य के विषय में विचार करती हूँ तो विवाह को एक आर्थिक प्रपंच मानने को चित्त नहीं करता। तुमने तो कहा था कि धर्म का सम्बन्ध है। उस दिन की बात मुझको आज समझ में आ रही है। इससे मैं अपने आप में पतित हो गई अनुभव करने लगी हूँ।
‘‘पहले मैं उनके यहाँ आने की सदा प्रतीक्षा किया करती थी। अब तो मैं यह चाहती हूँ कि वे न आयें तो ही ठीक है। यँ तो यदि उनमें किंचित् मात्र भी लज्जा है, तो वह स्वयं यहाँ नहीं आयेंगे।
‘‘मैं अब अकेलापन अनुभव कर रही हूँ। इस पर भी, जो कुछ यहाँ निर्माण करने की योजना मैंने बनाई है, वह मैं अपने जीवन का एक भाग समझने लगी हूँ। मैं उसको अब छोड़ नहीं सकती। यदि ऐसा न होता मैं बम्बई लौट जाने के स्थान फ्राँस लौटने की योजना बना चुकी होती।
‘‘मैं कभी विचार करती हूँ कि कितना अच्छा हो कि तुम भी बच्चों के साथ यहाँ आ जाओ। तुमको साथ रखने से मेरा साहस दुगुना हो जायेगा। क्या यह सम्भव हो सकता है?
‘‘पत्र अवश्य खिलते रहना। बिहारीलाल को मैं स्वयं लिख रही हूँ।’’
उसने बिहारीलाल को भी लिखा, ‘‘बिहारी भैया ! इस परदेश में जहाँ की मैं अभी नागरिक भी नहीं, तुम और शकुन्तला बहिन का आश्रय आकर मैं अपने मन में उत्साह और निर्भयता अनुभव करती हूँ। इधर दादा फकीरचन्द और माताजी की सहायता और प्रोत्साहन मुझको भवसागर में डूबने से बचाये हुए है। तुम्हारे कहे अनुसार मैं बम्बई गई थी और जो कुछ वहाँ आई हूँ, उससे पुनः ‘बम्बई जाने में रुचि नहीं रही।
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