उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
‘‘मैं वहाँ आपसे मिल नहीं सकी। यह समयाभाव के कारण नहीं था। यद्यपि मैं वहाँ दस घंटे रही थी, तो भी समय इतना था कि मैं सुगमता से तुमसे, शकुन्तला से और ललिता से मिल घंटों ही बैठ बातें कर सकती थी, परन्तु मन की अवस्था अनुकूलन न होने के कारण, बिना किसी से मिले चली आई हूँ।
‘‘अब तो तुम्हारे दर्शन देवगढ़ में ही होंगे। परीक्षा के पश्चात् तो तुम यहाँ आओगे ही।’’
सूसन ने अपने मन की पूर्ण भावना और उस भावना बनने में कारण को फकीरचन्द की माँ से वर्णन कर दिया। रामरखी ने कहा, ‘‘तो तुम वहाँ ही क्यों नहीं रह गईं?’’
‘‘मुझको वहाँ रहने में कुछ भी लाभ प्रतीत नहीं हुआ। इसके विपरीत मैं समझती हूँ कि यहाँ रहने से मैं अपने कार्य में सिद्धि प्राप्त कर सकूँगी।’’
‘‘देखो बेटी ! तुम वहाँ रहती तो उसको कुमार्ग में जाने से रोक सकती थीं। ’’
‘‘तो मैं उनपर जेल के दारोगा के समान देख-भाल करने के लिए वहाँ रह जाती? नहीं माँजी ! यह ठीक न होता। मैं अपने को यहाँ स्वतन्त्र रहने के योग्य बनाना चाहती हूँ। तब ही मैं उसको यहाँ लाने में सफल हो सकूँगी।
‘‘माँजी ! मैंने इस विषय पर बहुत विचार किया है। यह व्ययसाय, जो मैं यहाँ कर रही हूँ, बम्बई मे की जा रही हेरा-फेरी से सौ गुना उत्तम है। जिस प्रकार का व्यापार वे करते हैं, वह तो पाप है। कम-से-कम समाज को उस प्रकार के व्यापार की किंचित् मात्र भी आवश्यकता नहीं। इसके विपरीत जो कुछ यहाँ किया जा रहा है, वह तो समाज की रीढ़ की हड्डी का पोषण करने वाला है।’’
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