उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
|
270 पाठक हैं |
बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
रामरखी इतनी दूर की बात नहीं जानती थी। इसपर भी वह यह तो देख रही थी कि फकीरचन्द गाँव के अनेकों रहने वालों की जीविका का साधन बन रहा है। यदि सूसन अपने प्रयास में सफल हो गई तो गाँव की आर्थिक समस्या पूर्ण से सुलझ जायेगी।
मार्च के अन्त में फसलें पकने लगी थी और कटाई कराना और माल का खलिहानों में भरना आरम्भ हो गया था। सूसन पूर्ण कार्य अपनी देख-भाल में करा रही थी। इससे कार्य सतर्कता और सुचारु रूप से हो रहा था।
इस समय सूसन को बम्बई से एक तार मिला। उसमें लिखा था। ‘मैं कल प्रातः की गाड़ी से जिरौन स्टेशन पर पहुँच रही हूँ। शकुन्तला।’
सूसन इस तार को पढ़कर उछल पड़ी। उसको विस्मय और साथ ही अपार प्रसन्नता भी हुई। अबतक उसने अपनी लकड़ी की कुटिया में दो कमरे और बनवा लिये थे। इससे वह मन में शकुन्तला के रहने और उसके आराम के विषय में विचार करने लगी।
उसने शकुन्तला को देवगढ़ में आकर रहने का निमन्त्रण दिया था परन्तु यह बात तीन मास पुरानी हो चुकी थी। उसके पश्चात् लगभग दस-बारह चिट्ठियाँ आ-जा चुकी थी। परन्तु इस विषय पर किसी की ओर से भी चर्चा नहीं हुई थी। आज एकाएक शकुन्तला के आने के समाचार से उसकी प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा।
अगले दिन वह अपना घोड़ा-ताँगा लेकर गाड़ी के समय, जिरौन स्टेशन पर जा पहुँची। शकुन्तला आई तो उसके बच्चे भी साथ थे। उनको रेलगाड़ी से उतार और उनका सामान ताँगे में रखवा तथा उनको बैठा, घर की ओर आते हुए सूसन ने पूछ लिया, ‘‘शकुन्तला बहिन ! सदा के लिए आई हो न?’’
|