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उपन्यास >> धरती और धन

धरती और धन

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7640

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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती।  इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।


‘‘तुम्हारा निमन्त्रण कितने काल के लिए था?’’

‘‘यही तो पूछ रही हूँ कि पूर्ण निमन्त्रण स्वीकृत मानूँ न?’’

‘‘देखो, क्या होता है? घर से तो यही विचारकर निकली हूँ। एक बात का भय लगा रहता है। वह यह कि इनके पिता कही यहाँ न आ धमकें। अब बच्चे बड़े और सज्ञान हो रहे हैं। अभी तक तो इनके मस्तिष्क में अपने माता-पिता के लिए श्रद्धा और भक्ति है। मैं उसको छिन्न-भिन्न होने देना नहीं चाहती।’’

सूसन शकुन्तला को अपने घर ले गई। यह नदी के पार था और नदी के इस ओर ताँगा खड़ा करने के लिए सूसन ने एक तबेला बनाया हुआ था। नदी के पार अभी तक तो नौका से ही जाया जाता था। वहाँ जाकर सूसन ने शकुन्तला के लिए दो कमरे पृथक् दे दिये।

अगले दिन सूसन शकुन्तला को बिहारी की माँ से मिलाने ले गई। शकुन्तला और सूसन में इतना स्नेह देख रामरखी को भारी आश्चर्य हुआ। ‘‘तो तुम भी आ गई हो?’’ रामरखी ने पूछा।

‘‘हाँ माँजी ! अभी एक और यहाँ आने की प्रतीक्षा कर रही है।’’

रामरखी समझी नहीं और प्रश्न-भरी दृष्टि में उसका मुख देखने लगी। इसपर शकुन्तला ने कहा, ‘‘ललिता यहाँ आकर आपकी सेवा में रहना चाहती है।’’

रामरखी ने कुछ गम्भीर होकर कहा, ‘‘मैंने और फकीरचन्द ने इस विषय पर बहुत विचार किया है। फकीरचन्द का कहना है कि सेठजी की अनुमति के बिना, उनकी लड़की से विवाह करना उचित नहीं होगा।’’

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